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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/185 ग्रंथ में अधिक निकटता के साथ मिलता है। ओलस्टन (1659 से 1722)
ओलस्टन के ग्रंथों में प्रथम बार नैतिक शुभ और प्राकृतिक शुभ (सुख) दोनों को अलग-अलग रूप में रखने बौद्धिक प्रयास एवं खोज का विषय माना गया है और उन दोनों के बीच की संगति को नैतिक ज्ञान का विषय न बताकर धार्मिक आस्था का विषय बताया गया है। नैतिक बुराई एक सत्य तर्कवाक्य का व्यावहारिक व्याघात है। ओलस्टन का यह सिद्धांत क्लार्क के सिद्धांत के सर्वाधिक विरोधाभास-पूर्ण भाग से अधिक समानता रखता है। इसे बटलर की दृढ़ सामान्य बुद्धि के द्वारा स्वीकार नहीं किया जा सकता है, किंतु ओलस्टन की सुख या आनंद की एक ऐसे न्याय एवं वांछनीय साध्य के रूप में व्याख्या, जिसे प्रत्येक बौद्धिक प्राणी को प्राप्त करना चाहिए, स्वाभाविक नियंत्रक आवेग के रूप में आत्मप्रेम की बटलर की धारणा से पूरी तरह समानता रखती है, जबकि उसका नैतिक गणित, जिसके द्वारा वह सुख और दुःख की तुलना करता है और सुख के प्रत्यय को मात्रात्मक बताने का प्रयास करता है, बेन्थम के सिद्धांत का ही पूर्वाभास है।
यदि हम अंतर्विवेक और बौद्धिक आत्म-प्रेम के प्राधिकार के द्वैत की न्यायपरकता पर, उनकी प्रमाण सम्बंधी प्राकृतिक मर्यादाओं से ऊपर उठकर विचार करें, तो हम बटलर के विचारों के एक ऐसे पहलू पर पहुंचते हैं, जो कि अपूर्ण रूप से विकसित या अभिव्यक्त हुआ है। वस्तुतः, आत्म-प्रेम की युक्ति-युक्तता के सम्बंध में वह किसी भी व्याख्या की आवश्यकता को शायद ही स्वीकार करता है। वह केवल यह कहता है कि यह मनुष्य के बुद्धिमान् प्राणी होने के नाते अपने स्वयं के हितों और सुखों के सम्बंध में विचार करते हुए उसमें निहित है और इसीलिए स्वहित या अपना स्वयं का सुख, एक आबंध के रूप में अभिव्यक्त होता है। अंतर्विवेक की युक्ति युक्तता एक अलग प्रश्न है। यहां उसके सामने क्लार्क जैसे नीतिवेत्ताओं के ग्रंथ है, जिसमें नैतिक सिद्धांतों का पूरी तरह से बौद्धिक सहजज्ञान (स्वयं सिद्धि) के रूप में विवेचित करने का प्रयास किया गया है और उन्हें गणित की स्वयंसिद्धियों (सहजज्ञान) के रूप में बताया गया है। बटलर ने तर्क की इस प्रक्रिया को प्रमाणिक माना है। यद्यपि उसका अनुसरण नहीं किया है। यह क्लार्क के साथ इस बात में सहमत है कि सभी संकल्पों के पूर्व भी कार्यों में नैतिक संगति अथवा असंगति रही हुई है, जो कि दैवीय