Book Title: Nitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Author(s): Henri Sizvik
Publisher: Prachya Vidyapeeth

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Page 272
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 270 है, यद्यपि पूर्ण आत्मा अपनी इन विभिन्न अवस्थाओं में उपस्थित रहता है और आत्म-साक्षात्कार केवल किसी अवस्था - विशेष या किन्हीं अवस्थाओं की अपने में अनुपस्थिति मात्र नहीं है, इसलिए आत्म-साक्षात्कार सम्बंध ही एक पूर्णता का साक्षात्कार है। नीतिशास्त्र का मूल प्रश्न उस सच्चे पूर्ण को जानता है, जिसकी सिद्धि (उपलब्धि) है, सच्ची आत्मा की उपलब्धि होगी। ज्ञान के स्वरूप पर विचार करते जब ब्रेडले यह बताने का प्रयत्न करता है कि आत्मा केवल असीम (अपूर्ण) नहीं है। इस प्रकार, उसके लिए आत्म साक्षात्कार का अर्थ एक असीम पूर्ण होना है, मैं अपूर्ण हूं, साथ ही, मैं अपूर्ण और पूर्ण - दोनों भी हूं और इसलिए मेरा नैतिक जीवन एक सतत प्रगति है। मुझे प्रगति करना है, क्योंकि मैं जैसा मुझे होना है, वैसा नहीं हूं, यद्यपि जैसा मुझे होना है, वैसा मैं कभी भी नहीं हो सकता और इसलिए मैं एक आत्मविरोध की स्थिति में हूं। वैयक्तिक सीमित आत्मा तब तक पूर्ण नहीं हो सकता, तक कि वह पूर्ण का ही अंग नहीं हो जाता। उसे अपने-आप को एक पूर्ण के सदस्य के रूप में जानना चाहिए और संकल्प करना चाहिए। अंतिम साध्य, जिससे कि नैतिकता का तादात्म्य है या जिसमें नैतिकता निहित है, उसे आत्म - उपलब्धि के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में व्यक्त नहीं किया जा सकता। यद्यपि आत्मोपलब्धि, उसका तात्पर्य अपने-आप को एक असीम पूर्ण के आत्म- चेतन असदस्य के रूप में साक्षात्कार करना है, अर्थात् उस पूर्ण का अपने आप में साक्षात्कार करना है। लेकिन, चाहे ब्रेडले स्पष्ट रूप से इस तथ्य को जानता या न जानता हो, किंतु वह अनंत पूर्ण के प्रत्यय से नैतिकता के मूल तत्त्व को प्राप्त नहीं कर सका है और जहां तक नीतिशास्त्र का प्रश्न है, उसकी इस प्रकार की तात्त्विक - व्याख्या ग्रीन की अपेक्षा अधिक सफल नहीं हो पाई है। उसे अधिक आनुभविक और अपरोक्ष तथ्यों की ओर मुड़ना पड़ा। इस प्रकार, वह अकस्मात् ही इस विचार पर आ गया कि वह पूर्ण, जिससे व्यक्ति को एक आत्मचेतन सदस्य के रूप में आत्मसाक्षात्कार करना होता है, एक सामाजिक समुदाय अर्थात् समाज ही है। समाज ही यथार्थ नैतिकप्रत्यय है और मुझे समाज में अपने स्थान और उस स्थान के कर्त्तव्यों को जानकर उनका पालन करते हुए उनमें ही अपना आत्म-साक्षात्कार करना है । एक मनुष्य को क्या करना है? यह इस बात पर निर्भर है कि उसका प्रभाव में स्थान क्या है और उस स्थान के कार्य क्या हैं। यह उसके सभी कर्त्तव्य समाजरूपी शरीर में उसकी स्थिति पर आधारित हैं। मेरा स्थान और उसके कर्त्तव्यों से अधिक अच्छा, अधिक उच्च और -

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