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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/277 नीतिशास्त्र की समस्या के समाधान की दिशा में आगे नहीं ले जाती है, क्योंकि हमें यह कहने के पूर्व कि आचरण की शुभता सामाजिक-व्यवस्था स्वीकार करने में या उसके साथ संतुलन बनाए रखने में निहित है, हमें उस व्यवस्था को शुभ मान ही लेना होगा, जो कि विकास की धारणा से जो अपेक्षा की जाती है, उतनी वह उसे पूरा न कर पाती है, या वह अपेक्षित व्याख्या नहीं कर पाती है। असहयोगी परिवृत्यों के निराकरण की प्रक्रिया के रूप में प्राकृतिक-वरण (चयन) बौद्धिक-वरण (चयन) नहीं है, लेकिन व्यक्ति चेतना रूप से कार्य करता है और इसलिए उसका चयन आंतरिकप्रेरणाओं के कारण आत्मनिष्ठ होता है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य के कार्य बहुत कुछ रूप से उद्देश्यात्मक हैं, उनका कोई लक्ष्य होता है। वे केवल आत्मरक्षण नहीं हैं, लेकिन उन्हें आत्मविकास कहा जा सकता है। जहां आत्मरक्षण में परिवेश (वातावरण) के साथ समायोजन निहित हो सकता है, वहां आत्मविकास परिवेश के ही समायोजन में निहित है, किंतु प्रश्न यह है कि हम किस प्रभावक के आधार पर इस विकास को पाएंगे? स्पेन्सर (1820-1903)
हर्बट स्पेन्सर की मान्यता है कि जीवन की मात्रा अपनी लम्बाई और चौड़ाई के रूप में सार्वलौकिक-आचरण का परम लक्ष्य है। यद्यपि वह यह स्वीकार करता है कि इस प्रसंग में हमें जीवन के गुणों पर भी विचार करना चाहिए, फिर भी वह बिना किसी न्यायिक संगति के जीवन की मात्रा से सुख की मात्रा पर चला जाता है, जबकि अपने सिद्धांत के लिए उसे जीवन की मात्रा और सुख की मात्रा की सहगामिता को बताना चाहिए था।
जीव-विज्ञान के क्षेत्र में पहले अस्तित्त्व के लिए संघर्ष और प्राकृतिक वरण के प्रत्यय वैयक्तिक संघर्ष के संदर्भ में अधिक प्रचलित रहे, किंतु बाद में समूह की सुसम्बद्धता को अधिक महत्त्व दिया गया। समूह की एकता का तथ्य विकासवादी नीतिशास्त्र में बहुत ही महत्त्व रखता है। जैसा कि सार्ले का कथन है, यदि संघर्ष व्यक्तियों के बीच है, तो जो बचता है, वह अपने बने रहने के सुख का अनुभव करने वाला माना जा सकता है, लेकिन समूहों के बीच भी संघर्ष और अन्य बातों के समान रहने पर अधिक संगठित समूह के द्वारा कम संगठित समूह के ऊपर विजय प्राप्त करने की बहुत अधिक संभावना होती है, अतः समूह संगठित हो, इसलिए व्यक्ति को अपनी इच्छाओं एवं सुखों का अक्सर नियमन या नियंत्रण करना पड़ता है। इसलिए