Book Title: Nitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Author(s): Henri Sizvik
Publisher: Prachya Vidyapeeth

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Page 286
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 284 सहजज्ञानों, अर्थात् कांट के सिद्धांत और उपयोगितावाद के मूलभूत सिद्धांत के बीच का विरोध कम हुआ। यह बहुत ही स्पष्ट है कि केवल इसी नियम को एक सार्वभौमिकनियम के रूप में संकल्प किया जा सकता है कि सभी मनुष्य सामान्य सुख की अभिवृद्धि के लिए कार्य करो। इस प्रकार, सिजविक सहजज्ञानवाद पर आधारित उपयोगितावाद का समर्थक था। वे स्वयंसिद्धियां अथवा स्वतः प्रमाण, जिन्हें उसने अंत में स्वीकार किया है, निम्न थे - 1. विवेक ( जिसमें बौद्धिक - स्वहित निहित है ), 2. न्याय या समानता और 3. बौद्धिक - लोकहित (सिजविक के उपयोगितावाद का तार्किक आधार)। सामान्य-बोध का नैतिक सिद्धांत अपने आप को नियमों के एक ऐसे दर्शन के रूप में अभिव्यक्त करता है, जो कि सामान्य-सुख की अभिवृद्धि का होता है, लेकिन सिजविक के पास अपने उपयोगितावाद के लिए ऐसा कोई स्पष्ट और स्वयं-सिद्ध सिद्धांत नहीं था, जो कि पूर्णतया संगतियुक्त हो। उपयोगितावाद और सहजज्ञानवाद के बीच का विरोध एक गलत धारणा पर आधारित प्रतीत होता था, फिर भी सिजविक ने यह माना था कि व्यक्तिगत हित और नैतिकता के दूसरे सिद्धांतों के बीच एक मूलभूत विरोध है। वह विश्व की नैतिक-शासन व्यवस्था की धारणा- अर्थात् ईश्वरीय-शासन के सिवाय इस विरोध का समन्वय करने के लिए दूसरी कोई विश्वसनीय पद्धति की खोज नहीं कर सकता। इस सम्बंध में उसके विचार कांट और बटलर से सहमति रखते हैं । पुनः, उपयोगितावाद - दर्शन की समीक्षा के द्वारा उसने उपयोगितावाद के दोषों को देखा। उसने यह देखा कि बहुत सारी स्थितियों में उपयोगितावादी-‍ - गणना हमें मार्गदर्शन देने में अक्षम है। इसी कारण, वह सामान्यबुद्धि के निर्देशनों का उपयोग करने और उनका सम्मान करने के लिए आतुर था। इसका आधार विकासवाद की वह सामान्य धारणा थी, जो यह मानती है कि नैतिकस्थायीभाव और नैतिक-मान्यताएं सामान्य सुख की अभिवृद्धि करने वाले आचरण की ओर प्रवृत्त करती हैं, तिस पर भी उसने इस धारणा को उपयोगितावादी गणना से एक विरोधी निष्कर्ष निकाल लेने की प्रबल सम्भावना को समाप्त करने का आधार नहीं माना। सहजज्ञानवाद-मार्टिन्यू (1805-1900) जेम्स मार्टिन्यू का नीतिशास्त्र भी किसी रूप से संक्रमणकालीन ही था, फिर भी वह नैतिक विचारों के अधुनातन रूपों की अपेक्षा सहजज्ञानवाद के प्राचीन रूपों की दिशा में अधिक झुका। उसका ग्रंथ नैतिक सिद्धांतों के प्रकार (1885) -

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