Book Title: Nitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Author(s): Henri Sizvik
Publisher: Prachya Vidyapeeth

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Page 285
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/283 किया था। सिजविक ने इसे व्यावहारिक-बुद्धि का द्वैत कहना उचित समझा था। यह प्रमाण, जिस पर बटलर ने बल दिया था सिजविक के पूर्व ही बुद्धि के प्रमाण के रूप में स्वीकार कर लिया गया था। बटलर के प्रभाव के अधीन उसने असत्य मनोवैज्ञानिक सुखदवा के सिद्धांत का परित्याग कर दिया और कर्म की निष्कामता या अतिसजगता के आवेग के अस्तित्व को स्वीकार करने के हेतु बाध्य हुआ, अर्थात् यह माना कि कर्म के प्रेरक कर्ता के सुख से ही निर्देशित नहीं होते हैं। सहजज्ञानवादी-नीतिशास्त्र से अपने सिद्धांत के सम्बंध पर पुनर्विचार करते हुए सिजविक ने यह स्वीकार किया है कि वह उस सीमा तक सहजज्ञानवादी है, जहां तक कि वह यह मानता है कि सामान्य सुख के साध्य के लिए एक सर्वोच्च नियम मौलिक नैतिक सहजज्ञान पर आधारित होना चाहिए और उस सहजज्ञान को बंधनकारक स्वीकार किया जाना चाहिए। उसे अपने सिद्धांत उपयोगितावाद के लिए जिस सिद्धांत की अपेक्षा थी, वह यह कि एक बौद्धिक-कर्ता सामान्य सुख को साध्य बनाने हेतु बाध्य है। इस सिद्धांत को उसने मूर, क्लार्क और दूसरे प्रारम्भिक-आंग्लसहजज्ञानवादियों की रचनाओं में पाया। सिद्धांत और व्यवहार के लिए मूलभूत नैतिक-सहजज्ञान-पूर्ति, कांट के सिद्धांतों से हुई परम्परावादी-सहजज्ञानवादियों का यह दृष्टिकोण कि सहजज्ञानों की एक पूर्ण व्याख्या है, उसने स्वीकार नहीं किया। इसके विपरीत, उसने यह समस्या उठाई कि इन सहजज्ञानों की व्यवस्था को कैसे जाना जाएगा? सामान्य व्यक्ति वास्तविक रूप से तो नहीं, किंतु मौखिक-रूप से उससे सहमत प्रतीत होता है, इसलिए उसने साधारण व्यक्ति के अंतर्विवेक की संगतिपूर्णता के बटलर के दृष्टिकोण के प्रति संदेह किया। अपने विचारों की इस अवस्था में पुनः अरस्तु के ग्रंथों को पढ़ा और यह देखा कि अरस्तु ने हमें जो कुछ दिया, वह एक सजग विश्लेषण और तुलना के द्वारा सहजबोध की ग्रीक-नैतिकता का एक संगतिपूर्ण प्रस्तुतिकरण था। उसने जो कुछ दिया, वह एक बाहरी वस्तु नहीं थी, अपितु उस युग के सभी व्यक्तियों के चिंतन से निष्पन्न तथ्य था। सिजविक यह मानता था कि अरस्तु के समान ही अपने युग एवं परिस्थितियों की नैतिकता के लिए उसने भी वही, फिर चाहे वह नैतिक सहजज्ञान के एक दर्शन को प्रस्तुत कर पाया या न कर पाया हो, नैतिक सहजज्ञान को स्वीकार करने में उसने यही योगदान दिया। इस समीक्षा से सामान्य बोध के नैतिकता के सिद्धांत (चाहे प्रबलतम और कठोरतम अर्थात् ईमानदारी और सच्ची निष्ठा) और (दूसरों के प्रति कर्त्तव्य से सम्बंधित)

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