Book Title: Nitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Author(s): Henri Sizvik
Publisher: Prachya Vidyapeeth

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Page 288
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/286 दिशा में ले गया, फिर भी, सिजविक बताता है कि एक स्थान पर मार्टिन्यू ने कर्मपरिणामों को कुछ मान्यता दी थी। उसका यह कथन यह है कि परिकलन या संगणना बहुत-कुछ कर्म के इस या उस कर्म-प्रेरक की वरेण्यता में निहित है, क्योंकि जो कर्म का प्रेरक जितना आत्म-चेतन होता है, उतना ही अपने स्वयं के परिणामों का चिंतन करता है और उन परिणामों पर निर्णय देता है, हमारी मनोवृत्ति पर दिए गए निर्णयों में निहित है। यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या यह कथन मनोवैज्ञानिक-दष्टि से सही है। मार्टिन्यू ने नैतिक-मूल्य के तारतम्य की दृष्टि से आवेगों और प्रेरकों को एक क्रम में रखा है। वह कर्म-प्रेरकों के मूल्यों का निम्न प्रमापक प्रस्तुत करता है, किंतु यह देखा जाता है कि न तो सदैव उच्चतम को ग्रहण किया जाता है और न सदैव निम्नतम का ही त्याग किया जाता है। किसी सीमा तक हम सभी का किसी-न-किसी रूप में जीवन में स्थान है, लेकिन उन्हें अपने प्रभुत्व एवं आधीनता की सापेक्षिक-स्थितियों में उनके अपने-अपने क्षेत्रों तक सीमित रखना होगा। यह न तो अनुभव-पूर्व है और अनुभव ही इसे सिद्ध करता है कि आवेगों के किसी भी युगता के बीच उच्चतर और निम्नतर का एक सार्वभौम प्रामाणिक-सम्बंध है। आवेगों के बीच संघर्षों की चर्चा करते हुए मार्टिन्यू ने अव्यक्त रूप से कर्म-परिणामों के सिद्धांत को मान्य किया है, ऐसा सिजविक का कथन है। मार्टिन्यू की अपनी ओर से यह कहा जा सकता है कि मूल्यों के मापदण्ड के प्रत्यय को कर्म-परिणामों पर भी लागू किया जा सकता है और सिजविक का उपयोगितावादी-सिद्धांत कर्म-परिणामों के विभिन्न विकल्पों में नैतिकनिर्णय लेने के लिए एक आधार प्रस्तुत करने की दृष्टि से असंतोषप्रद है। नीतिशास्त्र विज्ञान के रूप में उंट (1832-1920) एक स्वतंत्र विद्या नीतिशास्त्र के स्वरूप और उसकी समुचित पद्धति का सर्वेक्षण विल हेम उंट के द्वारा अपने ग्रंथ नीतिशास्त्र (1886) में किया गया था और उसने जो दृष्टिकोण अपनाया था, उसे बहुत से परवर्ती नीति-सम्बंधी रचनाओं में भी मान्य किया गया। नीतिशास्त्र न तो विशुद्ध रूप से अनुभवाधारित विद्या है और न विशुद्ध रूप से विमर्षात्मक (बौद्धिक)- विद्या है, लेकिन प्रत्येक सार्वभौम विज्ञान के समान वह भी एक साथ अनुभवात्मक और चिंतनपरक- दोनों ही है। हमारे चिंतन की स्वाभाविक-प्रक्रिया में चिंतन के पूर्व आनुभविक-प्रक्रिया का होना आवश्यक है। निश्चय ही, हम निरीक्षण के द्वारा उस विषय-सामग्री को प्राप्त करते हैं, जिस पर चिंतन अपना ढांचा खड़ा करता है, अन्य विज्ञानों की तरह यह

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