Book Title: Nitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Author(s): Henri Sizvik
Publisher: Prachya Vidyapeeth

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Page 282
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 280 निरपेक्ष नीतिशास्त्र से समझौता नहीं करता है। कोई भी व्यक्ति उससे उसी नीति को मान्य करवा सकता है, जो कि उसमें प्रचलित हो, यदि कोई व्यक्ति उससे विरोधी नीति प्रस्तुत करने का साहस करेगा, तो वह उसे स्वीकार नहीं करेगा। प्राचीन विचारकों की यह कल्पना गलत थी कि नीति का निर्माण होता है। उनका काम तो उस नीति के लिए एक आधार खोजना था, इसलिए समाजशास्त्रीयदृष्टिकोण में नैतिक-नियमों को स्वनिर्मित तथ्य मानने के अतिरिक्त कोई प्रभावशाली सिद्धांत नहीं है, क्योंकि उनका विश्लेषण और उनकी व्याख्या उन ऐतिहासिकपरिस्थितियों और सामाजिक अवस्थाओं पर होगी, जिन्होंने इन्हें उत्पन्न किया है। उनसे कुछ भी निरपेक्ष या अनिवार्य नहीं है । वे तो बहुत ही अधिक परिवर्तनशील परिस्थितियों के उत्पन्न होने के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं, कभी-कभी एक दूसरे के विरोधी भी। (यही कारण है कि) सामाजिक - सिद्धांत नीतिशास्त्र की मूलभूत समस्या को सुलझाने में असफल हो जाते हैं। एक ओर यह कि हमारे नैतिक-निर्णयों और व्यावहारिक-नैतिक-नियमों के विशिष्ट रूप उस युग के मानव-समाज के स्वरूप पर और उन परिस्थितियों पर निर्भर होते हैं, जिन्होंने उन्हें प्रामाणिक बनाया है, दूसरी ओर, यह भी इतना स्पष्ट है कि मानव समाज की संरचना स्वयं भी नैतिक-प्रत्ययों से बहुत कुछ प्रभावित होती है और ये नैतिक-प्रत्यय अक्सर सामाजिक- रीतिरिवाजों के विरोध में उत्पन्न होते हैं और समाज के नव-निर्माण में निर्देशक होते हैं। सभी नैतिकप्रत्ययों को वर्त्तमान समाज और उसकी उपज के रूप से पूरी तरह मान्य नहीं किया जा सकता। पुनः, सामान्यतया समाजशास्त्री नीतिशास्त्र को नियमों के एक प्रारम्भिकविधान के रूप में मान्य करते हैं, किंतु नीतिशास्त्र न तो ऐसा माना गया था और न माना गया है, उसके लिए नियम गौण है। यह सत्य है कि गौण होने के कारण वे परिवर्तनशील हैं तथा देश और काल की भिन्नता के कारण कभी-कभी वे परस्पर व्याघातक भी प्रतीत होते हैं। यद्यपि इस तथ्य के आधार पर माना जा सकता है कि वे नैतिक-नियम जिन मौलिक मूल्यों से सम्बंधित हैं, वे यह बताते हैं कि अच्छाइयों को प्राप्त किया जाना चाहिए और बुराइयों को समाप्त किया जाना चाहिए। एक ही समाज या परस्पर संगतिपूर्ण साध्यों की उपलब्धि के लिए नियमों का स्वरूप, जिस परिस्थिति में साध्य की सिद्धि हो सकती है, उसके अनुसार अवश्य ही बदलेगा। नीतिशास्त्र की केंद्रीय-समस्या यह खोज करना है कि मूलभूत नैतिक मूल्य क्या हैं? व्यक्ति और समाज के वे साध्य कौनसे हैं, जो उनके लिए अधिकतम लाभकारक और

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