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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/254 अपेक्षा बहुत ही अधिक है। इससे आगे वह यह भी मान लेता है कि भविष्य में भी दुःख की अभिवृद्धि के अतिरिक्त भौतिक-सुधार की कोई सम्भावना नहीं है। विज्ञान की प्रगति भी विधायक-सुख नहीं दे पाती है या बहुत ही कम दे पाती है, साथ ही, यह गति दुःखों से सुरक्षा पाने में आंशिक-अभिवृद्धि पाती है। विज्ञान की गति से मानव-जाति जो कुछ प्राप्त कर सकेगी, वह भी मानवीय-प्रज्ञा और सहानुभूति के विकास के कारण दुःखों के बाहुल्य की व्यापक चेतना की तुलना में बहुत ही कम होगा। हार्टमेन का व्यावहारिक-निष्कर्ष यह है कि हमें विश्व-प्रक्रिया के साध्य, जो तथाकथित अस्तित्व के निषेध की दिशा में कार्यरत होकर व्यक्तिगत रूप से ही नहीं, जैसा कि शापन हावर मानता है, सामूहिक-रूप से जीने की इच्छा के निषेध को लक्ष्य बनाना चाहिए।
संदर्भ1. देखिए - बेकन नैतिक ज्ञान के अपने मुख्य एवं प्रारम्भिक वर्गीकरण में उसे दो भागों में बांटता है - (1) आदर्श या अनुकरणीय शुभ, (2) मन की संस्कृति या मन का अनुशासन। वह बताता है कि इस दूसरी शाखा के सम्बंध में प्राचीन नीतिवेत्ता अधिक नहीं जानते थे। इन प्राचीन नीतिवेत्ताओं ने मानव प्रकृति के विभिन्न लक्षणों एवं स्वभावों, उनके विभिन्न अनुरागों तथा उनको प्रभावित करने वाली अवस्थाओं एवं अवसरों का पूर्णतया एवं व्यवस्थित रूप से विवेचन नहीं किया है। जहां तक अनुकरणीय या आदर्श शुभ का सम्बंध है, यदि हम इस पृथ्वी पर परम शांति की सम्भावित प्राप्ति के लिए धर्म विरोधी असंयम का परित्याग कर दे। बेकन प्राचीन नीतिवेत्ताओं की रचनाओं को अधिक संतोषजनक मानता है। उन्होंने सद्गुण और कर्त्तव्य के सामान्य रूपों का तथा उनके विशेष भेदों का सम्यक् प्रकार से विवेचन किया है और उनकी पुष्टि की है अर्थात् उनका बचाव किया है, साथ ही शुभ के अंश तथाशुभ के तुलनात्मक स्वरूप का भलीभांति वर्णन भी किया है, यद्यपि बेकन यह सोचता है कि प्राचीन नीतिवेत्ताओं में शुभ या अशुभ के मूल कारणों की खोज सम्बंधी गवेषणा का दोहरा . स्वरूप रहा हुआ है। प्रथम तो प्रत्येक वस्तु अपने आप में ही सम्पूर्ण है या स्वयं में ही सत्तावान् है, दूसरे, प्रत्येक वस्तु किसी एक समूह (निकाय) की सदस्य है या उसका