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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/211 गई न्याय-सम्बंधी विवेचनाओं के द्वारा यथार्थ रूप से की जा सकती है। ह्यूम के विरूद्ध रीड साहसपूर्वक यह तर्क प्रस्तुत करता है कि (1) व्यक्ति और उसके परिवार को कष्ट पहुंचाना किसी की स्वतंत्रता में बाधा डालना, किसी की प्रतिष्ठा पर आघात पहुंचाना, वचन भंग करना आदि विभिन्न प्रकार की न्याय-विरूद्ध क्रियाएं (हानियां) अंतरात्मा के द्वारा नैसर्गिक अधिकारों का हनन प्रतीत होता है तथा जिनका सामाजिक सम से कोई भी वेतन-सम्बंध नहीं है और (2) यद्यपि सम्पत्ति का अधिकार बंधन नहीं, किंतु अर्जित है, फिर भी यह जीवन जीने के नैसर्गिक अधिकार का अनिवार्य परिणाम है, इसका अर्थ है- जीवन जीने के साधनों पर अधिकार और स्वतंत्रता भी नैसर्गिक-अधिकार का ही अनिवार्य परिणाम है। इसका अर्थ है- निर्दोष श्रम की उपलब्धियों पर अधिकार, किंतु रीड न्याय के ऐसे स्पष्ट और सरल नियमों को प्रस्तुत करने का कोई प्रयास ही नहीं करता है, जिनके द्वारा वास्तविक परिस्थितियों में इन अधिकारों का निर्धारण लोकोपयोगिता को अंतिम प्रमापक माने बिना भी किया जा सके। ड्यूगाल्ड स्टेवार्ट (1753-1828)
उसके नैतिक-सिद्धांतों में भी सामाजिक-कर्त्तव्यों के संदर्भ में इसी प्रकार की अपूर्णता पाई जाती है। यदि हम रीड के बहुत ही अधिक प्रतिभाशाली शिष्य इयूगाल्ड स्टेवार्ट की ओर आते हैं, तो उसके ग्रंथ फिलासफी ऑफ एक्टिव एंड मारल पावरस में बटलर, रीड एवं किसी सीमा तक प्राईस के सामान्य दृष्टिकोण भी उपलब्ध हैं। यह ग्रंथ सुव्यवस्थित रूप से, सूक्ष्मता के साथ एवं अधिक सुरूचिपूर्ण ढंग से लिखा गया है। यद्यपि इसमें नैतिक-मनोविज्ञान के सम्बंध में कुछ छोटे-मोटे संशोधन इसमें कोई महत्त्वपूर्ण मौलिक परिवर्तन या परिवर्द्धन नहीं किया गया है। स्टेवार्ट परोपकार से भिन्न न्याय की आबंधात्मकता पर अधिक जोर देता है, तो भी न्याय को परिभाषित करने में वह निष्पक्षता के सामान्य विचार से आगे नहीं जाता है। यह निष्पक्षता का विचार उन सभी नैतिक-विचारधाराओं में पाया जाता है, जो नैतिकनियमों के सार्वलौकिक-विनियोग की स्थापना करती है, फिर चाहे वे उपयोगितावादी हों या किसी अन्य सिद्धांत पर आधारित हों। निःसंदेह, न्याय की एक शिक्षा के रूप में ईमानदारी या सत्यनिष्ठा का विश्लेषण करते हुए वह एक नैतिक-सिद्धांत प्रस्तुत करता है। वह सिद्धांत यह है कि श्रमिक अपने स्वयं के श्रम से उत्पन्न वस्तु का स्वामी है। यही एक ऐसा सिद्धांत है, जिस पर सम्पत्ति के समस्त अधिकार आधारित हैं। वह