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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/216 करना चाहिए, जो उस सामान्य सामूहिक हित (फंड) में, जिसका प्रशासक ईश्वर है, अधिक योग दे।
किंतु, पेले के नैतिक-दृष्टिकोण की एक सरल रूपरेखा उसकी पूर्ववर्ती पीढ़ी के एक विचारक गे के निबंध के निम्न अंश में पाई जाती है। गे का यह निबंध किन्टस के पाप का उद्भव में जुड़ा है। गे का वह अंश इस प्रकार है- 'सद्गुण का प्रत्यय जीवन के नियम का समर्थक है, वह सभी बौद्धिकप्राणियों के कार्यों को एक-दूसरे ने सुख की दिशा में निर्देशित करता है। यह सुख सबके लिए सदैव ही आबंधात्मक है। यह आबंध सुखी होने के लिए किसी चीज को करने या छोड़ने की अवश्यता (बाध्यता) है। जो सभी स्थितियों में लागू हो, ऐसा व्यापक एवं पूर्ण आबंध तो केवल वही होगा, जो ईश्वरीय-आदेश के द्वारा लागू किया जावेगा। ईश्वर का संकल्प (जहां तक वह दूसरे के व्यवहार को निर्देशित करता है) अव्यवहित नियम या सद्गुण की कसौटी है, किंतु ईश्वर के स्वभाव से यही सिद्ध होता है कि मनुष्य-गति के निर्माण में मनुष्यों के सुख के अतिरिक्त उसकी दूसरी कोई योजना नहीं है
और इसलिए ईश्वर भी मनुष्यों के आनंद की कामना करता है, अतः मेरा व्यवहार भी ऐसा होना चाहिए कि वह मानव-जाति के सुख का साधन हो सके, ताकि मानव जाति के सुख को पुनः सद्गुण की कसौटी कहा जा सके। पेले (1743 से 1806)
यद्यपि इस सुखवादी-कसौटी के आधार पर निर्मित यथासंभव पूर्ण नैतिक-दर्शन का प्रतिपादन प्रथम पेले के ग्रंथ नैतिक एवं राजनीतिक-दर्शन के सिद्धांत में पाया जाता है। वह अपने ग्रंथ का प्रारम्भ आबंध की परिभाषा से करता है। आबंध (बाध्यता) का अर्थ है कि प्राणी किसी अन्य शक्ति के आदेश से उत्पन्न एक प्रबल प्रेरक के द्वारा अनुदेशित होता है। नैतिक-आबंध की स्थिति में आदेश ईश्वर की ओर से होता है और प्रेरणा इस जीवन के पश्चात् मिलने वाले पुरस्कार अथवा दंड की प्रत्याशा में निहित होती है। ईश्वर के आदेश को धर्मशास्त्र और निसंग की रचनादोनों के द्वारा जाना जा सकता है, यद्यपि पेले यह मानता है कि धर्मशास्त्र नैतिकता की शिक्षा देने की अपेक्षा उसे उदाहरणों के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं और नए अंकुशों को अधिक निश्चितता से लागू करते हैं। प्रकृति (निसर्ग) की रचना उस बात को स्पष्ट करती है कि ईश्वर का संकल्प अपने प्राणियों का सुख है। इस प्रकार, पेले की नैतिक