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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/222 तीव्रता को कम करने से ही संतुष्ट है और उपयोगितावादी कर्त्तव्य को व्यावहारिकरूप में पारस्परिक-हितों तक सीमित करते हैं, जबकि इनके विपक्ष में सामान्य सुख के प्रति वैयक्तिक-सुखों की पूर्ण आधीनता की धारणा को जे.एन. मिल के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। मिल ने राजनीतिशास्त्र और नीतिशास्त्र- दोनों क्षेत्रों में उपयोगितावाद को फैलाने और लोकप्रिय बनाने में बेंथम के सम्प्रदाय के किसी भी दूसरे सदस्य की अपेक्षा सम्भवतया अधिक कार्य किया है। जे.एस. मिल (1806 से 1873)
मिल ने अपने छोटे-से ग्रंथ उपयोगितावाद (1861) में सामान्य सुख को व्यक्ति का परम साध्य बताने के लिए जिस ढंग से प्रयास किया है, वह कुछ जटिल
और उलझनपूर्ण है। प्रारम्भ में वह ह्यूम और बेंथम के समान यह मानता है कि परमसाध्य-सम्बंधी प्रश्न अपने साधारण अर्थ में प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखता है। यद्यपि वह यह मानता है कि ऐसे विचारों को प्रस्तुत किया जा सकता है, जो तर्क के आधार पर इस सिद्धांत को अपनी स्वीकृति देने में तथा इसका निर्धारण करने में सक्षम हों। इस सम्बंध में उसने वस्तुतः जो विचार (चौथे अध्याय में) प्रस्तुत किए हैं, वे संक्षेप में निम्न हैं- (1) प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वयं के लिए जो चाहता है, वह दुःखों का अभाव या सुख है और वह हमेशा सुखों की मात्रा या उनके विस्तार के अनुपात में उनकी इच्छा करता है। (2) किसी वस्तु के वांछनीय होने का एकमात्र सम्भव प्रमाण यह है कि लोग वस्तुतः उसकी इच्छा करते हैं। (3) प्रत्येक व्यक्ति का सुख को इसलिए वांछनीय या शुभ है। (4) इसलिए सामान्य सुख सभी व्यक्तियों की समिष्टि के लिए शुभ है। यदि समिष्टि संकल्प के एक वास्तविक सामूहिक कार्य को सम्पन्न कर सके, तो सम्भवतया उपरोक्त विचार व्यक्ति को अपने संकल्प में सामान्य सुख को साध्य मानने के लिए प्रेरित कर सके, किंतु ये विचार मुश्किल से ही किसी व्यक्ति से यह मनवाने में सफल हुए हों कि उसे अपने स्वयं के सुख की अधिकतम मात्रा की अपेक्षा (सामान्य) सुख की अधिकतम मात्रा को अपने वैयक्तिक-आचरण के सर्वोच्च निर्देशक नियम और प्रमापक के रूप में स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि जब तीसरे अध्याय में स्पष्ट रूप से वह यह प्रश्न उठाता है कि उपयोगितावादी-नैतिकता का आबंधक स्रोत क्या है? तो उसका उत्तर पूरी तरह से बेंथम के अर्थों में नैतिक-अंकुश के कथन में निहित होता है, अर्थात् उस कर्ता को, जो सामान्य सुख को साध्य बताता है, अपने वैयक्तिक-सुखों को प्राप्त करना चाहिए और दुःखों से बचना चाहिए।