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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/232 नैतिकता का मुख्य कार्य हो सकता था, इसलिए विचार का प्रथम प्रश्न यही है कि क्या हम संरक्षण को एकमात्र साध्य के रूप में स्वीकार करें और सुरक्षित अस्तित्व को अधिक वांछनीय बनाने के स्थान पर क्या केवल मानव-जाति के सामान्य अस्तित्व की सुरक्षा से ही संतुष्ट हो जावें, अथवा संक्षेप में कल्याण के प्रत्यय को भविष्य में अस्तित्व को बनाए रखने की धारणा में ही सीमित कर दे। समाज सभी शरीर के संरक्षण में सहायक होने को ही एक ऐसी कसौटी मान ले, जो नैतिकता के वैज्ञानिक पुनर्निर्माण पर पूरी तरह से लागू होती हो।62 आशावाद और निराशावाद
__ यह कहना सरल नहीं है कि जीवन और सुख में मानने वाला यह दृष्टिकोण, जो कि स्पेन्सर और स्टीफन के नैतिक-दर्शन का आवश्यक अंग है, किस सीमा तक कम या अधिक रूप में आज्ञावादी है। इसे इन अध्येताओं के द्वारा स्वीकार किया गया, जिन्होंने अपने-आपको जीवन विज्ञान और समाज-विज्ञान की खोजों में लगाया था और जिनकी संख्या में अभिवृद्धि होती रही। यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि प्रचलित दृष्टिकोण सामान्यतया जीवन को कुल मिलाकर दुःखों पर सुखों के आधिक्य का सहचारी मानता है, यद्यपि इस मान्यता की सत्यता समय-समय पर विचारपूर्ण तर्कों के प्रस्तुतिकरण से विवादास्पद बनी रही है। अंशतः तो यह विवादास्पद एवं अपने निराशावादी दर्शन के कारण थी, जिसका कि संक्षिप्त विवरण बाद में दिया गया है। जिन विषयों पर निराशावादी-दार्शनिक अधिक बल देते हैं, वे निम्न हैं- (1) इच्छा की अवस्था की दुःखदता और असंतुष्ट आकांक्षाएं, जो कि अब भी जीवन-प्रक्रिया का एक व्यापक और अपरिहार्य अंग हैं, (2) सुख की तुलना में दुःख की बहुत ही अधिक तीव्रता, विशेष रूप से शारीरिक-दुःख की और वह भी मनुष्यों के सम्बंध में, (3) वर्तमान के दुःखों और पीड़ाओं से थोड़े बहुत बचाव के लिए भी अधिकांश लोगों का कष्टकर श्रम करने हेतु विवश होना। इन बातों पर और कुछ दूसरे आधारों पर निकाले गए इस परम्परागत निकर्ष का इंग्लैण्ड से अभाव ही है कि कुल मिलाकर मानव-जीवन सुखद होने की अपेक्षा दुःखद ही अधिक है। यह एक व्यापक विचार है कि सभ्य समाजों में भी जनता के द्वारा उपलब्ध सुखों का औसत दुःख की अपेक्षा बहुत ही कम है, साथ ही यह कि लोकहित का वर्तमान उद्देश्य मानव-जीवन में मात्रात्मक-वृद्धि की अपेक्षा गुणात्मक-विकास ही होना चाहिए।