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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/182 होता है, जबकि दूसरा वर्ग अर्थात् श्रद्धा की भावना एवं सामाजिक प्रेम, जो कि सामाजिक हित के अनुराग से भिन्न हैं और सफल दुर्गुणों के प्रति रोष, प्रथमतया लोकहित की और प्रवृत्त होते हैं। यह सब कर्म के उन प्राकृतिक प्रेरकों के बारे में है, जिनके नियमन की आवश्यकता है, किंतु स्वभाविक नियामक सिद्धांतों के बटलर के दृष्टिकोण को निश्चित कर पाना अधिक कठिन है। उसके प्रथम उपदेश (सरमन) में हमें ऐसे तीन सिद्धांतों अर्थात् आत्मप्रेम, परोपकारिता और अंतर्विवेक की सूचना मिलती है। इनमें से प्रथम दो, आवेगों के उन दो वर्गों पर शासन करते हैं, जिनकी क्रमशः आत्महित और लोकहित की ओर प्राथमिक प्रवृत्ति रहती है, जबकि अंतर्विवेक या सद-असद का विवेक सर्वोच्च रूप से सभी का नियामक है, किंतु बटलर के कथनों की निकटता से समीक्षा करते हुए यह देखा जा सकता है कि जिसे वह परोपकार के प्रत्यय के अंतर्गत लेता है, वह निश्चित ही सामान्य शुभ की इच्छा नहीं है, अपितु प्रत्येक व्यक्ति के प्रति अनुराग का एक प्रकार है। यदि मानव जाति में मित्रता की कोई स्ववृत्ति है, यदि पैतृक या पितृसुलभ वात्सल्य के रूप में सहानुभूति नामक कोई चीज है अथवा मानव प्रवृत्ति में अनुराग का कोई तत्त्व है, जिसका विषय और उद्देश्य दूसरों का हित है, तो यही परोपकारिता भी है। सम्भवतया मानव-जाति के ऐसे सामान्य सुख या लोकहित के अस्तित्व के प्रति वह संदेहशील है, जो कि एक ओर विशेष प्रकार के स्नेहयुक्त अनुरागों से और दूसरी ओर अंतर्विवेक से भिन्न हैं, अधिक निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि अपने समनस् के लेख के समय उसका झुकाव शेफ्ट्सबरी के इस दृष्टिकोण के प्रति नहीं था कि सम्पूर्ण समाज का सुख या हित ही आचरण का परम साध्य है। इसका समर्थन अंतर्विवेक करता है। वह कहता है कि मानव जाति एक बिरादरी है, हम सब एक-दूसरे के सम्बंधी हैं, हमारा एक सामान्य साध्य और सामान्य सामाजिक हित है, जिसके सम्पादन एवं अभिवृद्धि का दायित्व प्रत्येक सदस्य पर है और इन सबका योग ही नैतिकता है। किसी भी प्रकार से यह हचीसन के समान एक सामान्य नियामक सिद्धांत के रूप में सामान्य सुख के प्रति शांतभाव को स्वीकार नहीं करता है, जो कि उस व्यक्तिगत सुख के प्रति एक शांतभाव का समानांतर है, जिसे वह आत्मप्रेम कहता है। अब आत्मा के राज्य के दो प्राधिकारी अर्थात् अंतर्विवेक और बौद्धिक आत्मप्रेम शेष रहते हैं। जैसा कि आमतौर पर माना जाता है, बटलर का यथार्थ दृष्टिकोण यह नहीं है कि आत्मप्रेम स्वाभाविक रूप से ही अंतर्विवेक के अधीन है, कम से कम यदि हम इन दोनों के व्यावहारिक सम्बंधों की