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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/163 चाहिए। यदि शुभ की अनुपस्थिति मात्रा अशुभ की उपस्थिति मात्रा के बराबर है, तो शुभ की अनुपस्थिति ही वरेण्य है। यदि वे समान रूप से निश्चित हैं और करीबकरीब उतने ही अधिक संभाव्य है, तो भावी शुभ अथवा अशुभ को भी उतना ही महत्व देना चाहिए, जितना कि वर्तमान शुभ या अशुभ को। इन मान्यताओं का आधार कुछ भी रहा हो, इतना स्पष्ट है कि हाब्सवाद और आधुनिक प्लेटोवाद के बीच का गहरा विरोध ऐसे सिद्धांतों से सम्बंधित नहीं है, किंतु उन बातों से सम्बंधित है, जो व्यक्ति के द्वारा उसके साथियों के लिए (वास्तविक या प्रतीत्यात्मक) त्याग की अपेक्षा करती है। ईसाई धर्मग्रंथ की शिक्षाएं हैं कि जैसा तुम दूसरों से चाहते हो, वैसा ही व्यवहार उनके प्रति भी करो या प्रत्येक व्यक्ति को जो भी उसका अधिकार है, उसे दो और बिना किसी बाधा के उसे उपभोग करने दो। यह न्याय का सिद्धांत है और मूर विशेष रूप से वह परोपकार का सामान्य सूत्र प्रस्तुत करते हुए कहता है कि यदि यह शुभ है कि एक व्यक्ति को सम्यक् प्रकार से जीवन जीने और सुखी रहने के साधन दिए जाएं तो दो व्यक्तियों को ऐसे साधन देना गणित का द्विगुणित शुभ होगा और इसी प्रकार आगे भी कि समाज के थोड़े लोगों की अपेक्षा अधिक लोगों को लाभ पहुंचाना, यह सामान्य हित के लिए है, यद्यपि मात्र ऐसे सूत्र के प्रस्तुतिकरण से हाब्स के द्वारा उठाई गई समस्या का पूरी तरह से निराकरण नहीं हो पाता है। यह मान्यता वस्तुतः बहुत कुछ रूप में एक सामान्य प्रकथन है। प्रश्न अभी भी शेष रहता है कि एक व्यक्ति को इस अथवा अन्य किसी सामाजिक सिद्धांत को मान लेने के लिए कौन-सी प्रेरणा कार्य करती है, जबकि ऐसा सिद्धांत उसकी स्वाभाविक इच्छाओं और व्यक्तिगत रुचि के विरोध में है। कडवर्थ स्पष्ट रूप से इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं देता है और मूर का उत्तर भी अधिक स्पष्ट नहीं है। एक ओर वह यह मानता है कि यह सिद्धांत एक निरपेक्ष शुभ को अभिव्यक्त करता है। इसे बौद्धिक कहा जाता है, क्योंकि इसका सारतत्त्व एवं इसकी सत्यता को बुद्धि के द्वारा ही जाना जाता है एवं परिभाषित किया जाता है। इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि निर्णय करने वाली यह बुद्धि स्वयं ही संकल्प का समुचित रूप से एवं पूरी तरह निर्धारण करती है। बुद्धिमान प्राणी के रूप में मनुष्य को इसी निरपेक्ष शुभ को स्वतःसाध्य मानकर ही इसकी सिद्धि या प्राप्ति का उद्देश्य रखना चाहिए। यही निष्कर्ष मूर की सद्गुण की परिभाषा में भी सूचित किया गया है। मूर के अनुसार, सद्गुण आत्मा की वह बौद्धिक शक्ति है, जिसके द्वारा आत्मा अपने पाशविक आवेगों और दैहिक वासनाओं पर पूर्ण नियंत्रण करती है।