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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/167 नियम कहता है और यह मानता है कि वह ईश्वरीय नियम होने से समुचित पुरस्कार एवं दण्ड के अंकुश से युक्त होगा। वह इसे न केवल नागरिक नियम से, अपितु जनसाधारण की धारणाओं (मत) या प्रतिष्ठा के नियम से भी स्पष्ट रूप से अलग करता है। प्रतिष्ठा के नियम का तात्पर्य ऐसे परिवर्तनशील नैतिक प्रमाणक से है, जिसके आधार पर वस्तुतः, मनुष्य की प्रशंसा या निंदा की जाती है। वस्तुतः वह इस दैवीय नियम के पूर्ण प्रभावकारी होने के वैज्ञानिक अभिनिश्चय की बात नहीं कहता है, अपितु वह उसकी सम्भावना को दृढ़ एवं निश्चयात्मक भाषा में स्वीकार करता है। वह कहता है कि परम सत्ता का प्रत्यय अनंत शुभत्व, अनंत शक्ति एवं अनंत प्रज्ञा से युक्त है। हम इसी परमसत्ता की कलाकृति हैं और इसी पर निर्भर हैं। बुद्धिमान प्राणी के रूप में हमारी सत्ता का प्रत्यय हममें इतना अधिक स्पष्ट है कि मैं समझता हूं कि यदि इस पर सम्यक् प्रकार से विचार किया जाए एवं इससे प्रेरणा ली जाए, तो यह हमारे कर्तव्यों को आचरण के नियमों के लिए इतना सुदृढ़ आधार प्रस्तुत करता है जिस पर नैतिकता को प्रमाणिकरण के योग्य विज्ञानों में रखा जा सकता है। मुझे इसमें संदेह नहीं है कि स्वतःप्रमाण्य तर्कवाक्यों से शुभ और अशुभ के मापन के लिए ऐसे अनिवार्य निष्कर्ष प्राप्त किए जा सकते हैं, जो कि गणित के निष्कर्ष के समान ही अकाट्य होंगे। ईश्वर का शुभत्व केवल सुख को देने की इच्छा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी संगतिपूर्ण रूप से नहीं समझा सकता है। अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कार्यों के
औचित्यता का अंतिम प्रमापक कार्यों से प्रभावित होने वाले प्राणियों का सामान्य सुख ही होना चाहिए, किंतु इस उद्धरण के आधार पर जिसे कि हमने अभी उद्धरित किया है, लाक स्पष्ट रूप से इस प्रमापक को स्वीकार नहीं कर सकता है। वे कथन जिन्हें वह उदाहरणों के रूप में या अंतःप्रज्ञात्मक नैतिक सत्यों के रूप में प्रस्तुत करता है, सामान्य सुख के सिद्धांत की प्रामाणिकता से सम्बंधित नहीं हैं जैसे कोई भी शासन पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान नहीं करता है तथा जहां कोई सम्पत्ति नहीं है, वहां अन्याय भी नहीं है। पुनः, अपनी पुस्तक में वह प्रकृति के नियम की विवेचना करता है और उसे शासन की शक्ति के स्रोत एवं निर्धारण के लिए महत्त्वपूर्ण मानता है, निर्धारित नियमों की उसकी बौद्धिकता सिवाय किसी अव्यक्त या गौण रूप के उपयोगितावादी नहीं है। अपने प्राकृतिक नियम के विचार को उसने प्रत्यक्ष रूप से ग्रोटीअस से और उसके शिष्य पुफेन्डोर्फ से तथा परोक्ष रूप में स्टोईक और रोमन विधिवेत्ताओं से प्राप्त किया है। यह प्राकृतिक नियम का विचार मुख्यतः वैसा ही है, यद्यपि उसमें एक या दो