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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/148 अभिवृत्ति से सम्बंधित लगते है, जिसके अनुसार प्रत्येक कर्त्तव्य का पालन किया जाना चाहिए। सुधारवाद ईसाई धर्मसंघ (चर्च) के लेखन और व्याख्याओं में भी साधारण मनुष्यों के आचरण सम्बंधी कर्तव्यों का विधायक तत्त्व, सद्गुण तथा अधिकांश निषेधात्मक नियम भी तत्त्वतः अपरिवर्तित ही रहे। मात्र संन्यास-मार्ग का पूरी तरह से निरसन कर दिया गया था और ईसाई आचरण के नैतिक आदर्श को संसार की निस्सारता की धारणा से मुक्त कर दिया गया था, यद्यपि पहले ईसाई धर्म में संन्यास मार्ग को बहुत उत्तम मार्ग माना जाता था। 16वीं एवं 17वीं शताब्दी के मध्य किंकर्तव्य-मीमांसा की पुरानी पद्धति को मान्य रखा गया था, यद्यपि स्वाभाविक बुद्धि के प्रकाश के द्वारा विवेचित और उससे अनुपूरित धर्मग्रंथ ही अब वे सब सिद्धांत प्रस्तुत करते थे, जिनके आधार पर अंतरात्मा की समस्याओं का निराकरण किया जाना था। आधुनिक नैतिक दर्शन की ओर
17वीं शताब्दी में नैतिकता की इस अर्द्धविधिक विवेचना के प्रति रुचि क्रमशः कम होने लगी और अनेक शताब्दियों के पश्चात् पुनः नीतिशास्त्र के अध्ययन में नैतिक नियमों के लिए स्वतंत्र दार्शनिक आधार खोजने हेतु शिक्षित वर्ग के द्वारा प्रयास किया जाने लगा। नव जागरण का यह प्रयास परोक्ष रूप से सुधारवाद के कारण हुआ। इसे प्राचीन पेगेन संस्कृति (मूर्तिपूजा आदि) के अवशेषों के साहसपूर्ण अध्ययन के साथ भी जोड़ा जा सकता है, जो कि 15वीं और 16वीं शताब्दी में इटली से प्रारम्भ होकर पूरे यूरोप में फैली हुई थी और जो स्वयं ही मध्ययुग में धर्मशास्त्र के प्रति व्यापक विमुखता का आंशिक कारण और आंशिक कार्य थी। प्रथमतः इस 'मानवतावाद' के प्रति रोमन धर्म-शासन (पोप के शासन) की अपेक्षा भी ‘सुधारवाद' का रुख अधिक विरोधी रहा। नव जागरण के नाम पर पोप के शासन ने किसी सीमा तक मूर्तिपूजा आदि विधर्मी तत्त्वों (पैगन संस्कृति) को ग्रहण कर लिया था, वह भी सुधारवाद के रोष को भड़काने का एक कारण था। कैथोलिक और प्रोटेस्टन्ट धारणाओं के समान ही स्वतंत्र नैतिक दर्शन के विकास में भी सुधारवाद का परोक्ष योगदान कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। पाण्डित्यवाद ने धर्मशास्त्र की दासी के रूप में दर्शन को जीवित रखते हुए, उसकी पद्धति को भी उसके स्वामी के अनुरूप अर्थात् धर्मशास्त्रीय बना दिया था। इस प्रकार पाण्डित्यवाद ने जिस पुनर्जीवित बौद्धिक क्रियाशीलता को स्वयं प्रेरित किया था और