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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/157 उसकी वृद्धि की ओर निर्देशित होती है, यहां तक कि द्वेष या घृणा भी दुःख की विमुखता से इसी प्रकार संचालित होती है। हाव्स ऐच्छिक सुख की खोज और मूल प्रवृत्यात्मक सुख की खोज में कोई अंतर नहीं करता है और वह बाहर से निःस्वार्थ प्रतीत होने वाले संवेगों को निश्चित रूप से स्वहित (स्वार्थ) का ही एक प्रकार बताता है। दया को वह दूसरों के संकटों के लिए होने वाला ऐसा दुःख मानता है, जो कि अपने पर आने वाले ऐसे ही संकट की कल्पना के कारण उत्पन्न होता है। जिस निस्सपहता को हम अच्छी मानते हैं और प्रशंसा करते हैं, वह वस्तुतः सुख का अभिवचन है। जब मनुष्य वर्तमान के सुख को तत्काल प्राप्त नहीं करते हैं, तो वे उसकी भावी सुख के साधन के रूप में इच्छा करते हैं और इस प्रकार उस (भावी सुख देने वाली) शक्ति की क्रियान्वित से की गई इस निष्पत्ति में सुख का बोध करते हैं, जो कि उन कार्यों को प्रोत्साहित करती है, तथा समग्र समाज रचना या तो लाभ के लिए है या प्रतिष्ठा के लिए। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्यों को पारस्परिक सहयोग की अपेक्षा है बच्चों को अपने जीवन के लिए दूसरे की सहायता आवश्यक होती है और वृद्धों को भी ठीक.प्रकार से जीवन जीने के लिए ऐसी ही सहायता की आवश्यकता होती है। किंतु जहां तक इस आवश्यकता का सम्बंध है यह समाज-रचना की अपेक्षा एक
अनुशासन है, जिसे समस्त भयों से त्राण पाने के लिए एक मनुष्य अवश्य ही स्वीकार करेगा। पारस्परिक भय से अलग हटकर मनुष्य में अपने साथियों के साथ राजनीतिक संगठन में संगठित होने की और उससे प्रतिफलित होने वाली निषेधाज्ञाओं एवं विधायक दायित्वों में स्वीकार करने की कोई स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं है। यदि किसी को मनुष्य की स्वाभाविक असामाजिकता के प्रति संदेह हो, तो हाव्स उसे यह विचार करने को विवश करता है कि उसके और उसके साथियों के निम्न कार्य क्या बताते हैं? जब वह कोई यात्रा करता है, तो अपने को हथियारों से सज्जित करता है, जब सोता है, तो दरवाजे बंद करता है, अपने स्वयं के घर में भी अपनी संदूकों, तिजोरियों पर ताले लगाता है और यह भी, जब कि वह जानता है कि उसे पहुंचाई जाने वाली प्रत्येक क्षति का बदला लेने के लिए कानून एवं शासन के सशस्त्र अधिकारीगण हैं।
तब अपने सामाजिक स्वभाव के कारण अन्य प्राणियों के साथ रहने वाले इस स्वार्थी एवं स्वाभाविक रूप से स्वहित की अपेक्षा रखने वाले इस प्राणी के लिए आचरण का बुद्धिसंगत रूप क्या है और वह आचरण कौनसा है, जिसे उसे अंगीकृत कर लेना चाहिए? प्रथमतः, चूंकि मनुष्य के सभी ऐच्छिक कार्य उसके आत्मरक्षण