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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/158 या सुख के भाव से प्रवृत्त होते हैं, इच्छा के एक विषय से दूसरे विषय की ओर सतत् प्रगति में हैं, (सुख के अतिरिक्त) किसी अन्य वस्तु की कामना करना बुद्धिसंगत नहीं होगा। वस्तुतः, बुद्धि की अपेक्षा प्रकृति ही मानवीय कार्यों का साध्य निश्चित करती है। प्रकृति के द्वारा निश्चित साध्य के लिए साधन प्रस्तुत करना ही बुद्धि का कार्य है, इसलिए यदि हम यह पूछे कि किसी व्यक्ति के लिए उन सामान्यतया नैतिक कहे जाने वाले सामाजिक व्यवहार के नियम का पालन करना क्यों बुद्धिसंगत है? इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर यह है कि इन नियमों का पालन करना व्यक्ति के स्वयं के आत्मरक्षण या सुख के साधन के रूप में परोक्षतया बुद्धि संगत है। यद्यपि केवल इस प्राचीन सिरेनेक्सवादी या इपीक्यूरीयनवादी उत्तर में हाव्सवाद की विशेषता नहीं है, अपितु उसकी विशेषता इस सिद्धांत में है, कि सर्वाधिक मौलिक नैतिक नियमों की अपरोक्ष बुद्धियुक्तता पूरी तरह उनके उस सामान्य निरीक्षण पर आधारित है, जिसे शासन की मध्यवर्तिता के बिना नहीं पाया जा सकता है। उदाहरणार्थ यदि मुझे यह साधार संदेह हो कि दूसरा पक्ष बाद में संविदा का पालन नहीं करेगा, तो मेरे द्वारा उस संविदा के अपने भाग का पहले पालन करना, मेरे लिए बुद्धि संगत नहीं होगा। इस आधारभूत तर्क संप्राप्त संदेह का निराकरण केवल समाज की उस अवस्था में ही पूरी तरह हो सकता है, जिसमें वह उन नियमों का पालन नहीं करने के लिए दण्डित किया जाता हो। इस प्रकार सामाजिक व्यवहार के सामान्य नियम केवल सापेक्षिक रूप में ही बंधनकारक है। उनका क्रियान्वयन एक ऐसी सामान्य शक्ति के निर्माण से होता है जो सामान्य हित की ओर प्रवृत्त नियमों को सभी के द्वारा पालन करवाने के लिए सबके साधनों और शक्ति का उपयोग कर सके। दूसरी ओर नैतिक नियमों के सर्वोच्च महत्व को बनाए रखने के लिए हाव्स किसी को झुकाना नहीं चाहता है। न्याय सम्बंधी नियम, प्रसंविदाओं का पालन, सभी मनुष्य को समान समझना, हित करने वाले को उसका प्रतिफल (पुरस्कार), सामाजिकता, जहां तक सुरक्षा को आघात न पहुंचे, वहां तक अपराध करने वालों के लिए क्षमा, घमण्ड, अहंकार, अवज्ञा (निंदा) को रोकने वाले नियमों और दूसरे गौण नियमों को हम एक सरल सिद्धांत में समाहित कर सकते हैं। वह सिद्धांत है कि दूसरे के प्रति वह मत करों जिसे तुम अपने लिए नहीं चाहते हो। इस सिद्धांत को ही वह प्रकृति का अपरिवर्तनीय एवं शाश्वत नियम बताता है। इसका अर्थ यह है कि यद्यपि मनुष्य कार्यों के क्रियान्वयन के लिए निरपेक्ष रूप से बाध्य तो नहीं है, तथापि एक बुद्धिमान प्राणी के रूप में उनकी सिद्धि की