________________
नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/139 इन सिद्धांतों को आचरण में उतारने के लिए प्रेरित करता है और उनके भंग करने से बचाता है। प्राकृतिक सद्गुणों से सम्बंधित सभी कार्य आंतरिक रूप से इसी प्राकृतिक नियम के क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं, किंतु जब इन्हीं प्राकृतिक नियमों को मानवीय जीवन की विशेष परिस्थितियों में लागू करने के अंतर्विवेक के अंतर्गत लाया जाता है, तब मनुष्य का निर्णय भ्रांत हो सकता है इसीलिए कर्तव्य का पूरी तरह से अभ्रांत ज्ञान नहीं हो पाता है, प्राकृतिक या स्वभाविक प्रकाश बुरे प्रशिक्षण एवंरीतिरिवाजों से तिरोहित या विकृत हो जाता है। न केवल जहां मनुष्य का प्राकृतिक नियमों का बोध कोई आंतरिक मार्गदर्शन न दे पाता है, वहां स्पष्ट विवरण प्रस्तुत करने के लिए मानवीय नियम आवश्यक हैं, अपितु जो अपूर्ण मनुष्यों को बुरे कार्यों और दूसरों के लिए अहितकर कार्यों से रोकने के लिए तथा व्यावहारिक कार्य करने के हेतु आवश्यक शक्ति प्रदान करने के लिए अनिवार्य हैं, ये कानून या विधान के नियम या तो प्राकृतिक नियम के सिद्धांतों से निगमित किए जाते हैं या उन विशेषों के द्वारा निर्धारित होते हैं, जिन्हें यह नियम अनिर्धारित छोड़ देता है। वे धाराएं, जो प्राकृतिक विधान की विरोधी हो एक नियम के रूप में भी कभी भी प्रामाणिक नहीं हो सकती हैं, यद्यपि मानवीय नियमों का संबंध केवल बाह्य आचरण से है और वे जितनी बुराई रोकते हैं, उससे कहीं अधिक बुराई उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार वे समस्त बुराई के निरसन का प्रयास भी नहीं कहे जा सकते हैं, जबकि प्राकृतिक नियम अपने लागू होने की स्थितियों को अस्पष्ट और अनिश्चित बनाने के दोषी है, न तो प्राकृतिक नियम और न मानवीय नियम ही उस आध्यात्मिक सुख पर विचार करते हैं, जो कि मानव का परम श्रेय है, इसीलिए इन प्राकृतिक एवं मानवीय नियमों को ईश्वर नियम के प्रकाशन से पूरित होने की आवश्यकता है। यह प्रकाशन (आगम) भी पुराने सुसमाचार और नए सुसमाचार- इन दो भागों में विभाजित है। इनमें से भी नवीन सुसमाचार विधायक और आदेशात्मक है, क्योंकि यह उस ईश्वरीय कृपा से युक्त है जो कि उसकी पूर्णता को सम्भव बनाती है, यद्यपि हम इस नए सुसमाचार को भी दो भागों में विभाजित कर सकते हैं - 1. निरपेक्ष आदेश और 2. सुझाव (परामर्श), जो कि बिना विधायक आदेश के संत जीवन के सद्गुणों जैसे अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, विनय आदि की भौतिकता इच्छाओं से पराङ्मुख होकर आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति हेतु, इसकी सबसे अच्छे साधन के रूप में अनुशंसा की गई है।
किंतु, प्रश्न यह है कि मनुष्य स्वाभाविक या ईसाई धर्मानुसार पूर्णता को