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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/126 नैतिकता में अंतर कर पाना कठिन है। ब्रह्मचर्य (संयम) और सेवा के नियमों (कर्त्तव्यों) का यह दार्शनिक अनुमोदन जिस सीमा तक जाता है, वह संतों के अनुमोदन से भिन्न नहीं लगता है। यदि एक प्राकृतिक मनुष्य (जनसाधारण व्यक्ति) को उन सभी कर्तव्यों को पूर्ण करने के योग्य मान लिया जाए, जिनका उसे बोध हो सकता है, तो ईसाई धर्म में इलहाम का जो नया प्रकाश दिया गया, वह पाप से पूर्णतया मुक्ति की संभावना को बताता है, किंतु पेलेगियम की शिक्षाओं में विकसित यह (कर्म-सिद्धांत सम्बंधी) निष्कर्ष ईश्वरीय कृपा पर पूर्ण निर्भरता की उस धारणा से असंगत है, जिससे ईसाई जनमानस पूरी तरह चिपका हुआ है। इसलिए आगस्टिन के नेतृत्व में इसे धर्म विरोधी मानकर त्याग दिया गया था। आगस्टिन (355-430 ई.)
____ आगस्टिन ने मनुष्य को ईश्वरीय नैतिक शक्ति की कृपा के बिना दैवी नैतिक नियमों का पालन करने में अक्षम मानकर अपने सिद्धांत को उस बिंदु पर पहुंचा दिया था, जहां संकल्प की स्वतंत्रता के साथ उसकी संगति बिठा पाना कठिन था। आगस्टिन संकल्प की स्वतंत्रता के सैद्धांतिक महत्व से भलीभांति परिचित थे, वे ईश्वरीय न्याय एवं मानवीय उत्तरदायित्व के साथ रहे हुए संकल्प की स्वतंत्रता तार्किक सम्बंध को भी जानते थे, किंतु वे मानते थे कि इन प्रश्नों को तभी पूर्णतया सुलझाया जा सकता है, जब हम केवल मानवजाति के प्रथम पूर्वज ‘आदम' के सम्बंध में ही शुभ और अशुभ के बीच चुनाव करने की वास्तविक स्वतंत्रता को मान लेते है, क्योंकि वह बीजगर्भित प्रकृति, जिससे सब मनुष्य उत्पन्न हुए और जो आदम में भी उपस्थित थी और ईश्वर के द्वारा उसे दी गई उस ऐच्छिक प्राथमिकता के कारण मानव जाति ने एक ही बार में सदैव के लिए बुराई को चुन लिया है। जन्म से पूर्व के उस (वंशानुगत) पाप के कारण सभी मनुष्य सतत् रूप से पापाचारिता एवं तज्जनित दण्ड के तब तक भागी है। जब तक कि ईश्वर की अनर्जित कृपा के लिए चुने जाकर ईसा के प्रायश्चित के लाभ के भागी नहीं बनाए जाते हैं। बिना इस कृपा के मनुष्य के लिए यह असम्भव है कि वह ईश्वर के प्रति प्रेम के उस महान आदेश का पालन कर सके। यदि यह पूरा नहीं हो पाता है तो यह सम्पूर्ण नियम के लिए दोषी है, मनुष्य केवल पाप की विभिन्न मात्रा में ही चयन के लिए स्वतंत्र है। उसके बाह्य सदाचार (सद्गुणों)