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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/123 नहीं कहा जा सकता है कि ईसाई धर्म संकल्प-स्वातंत्र्य और नियतता के तात्त्विक विरोध में कोई निर्णायक पक्ष ग्रहण करता है। जिस प्रकार ग्रीक दर्शन में उत्तरदायित्व के आधार पर स्वतंत्रता की आवश्यकता प्रतिपादित की गई, किंतु इसके विरोध में यह धारणा भी थी कि कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से अपने अहित का वरण नहीं करता है, उसी प्रकार ईसाई धर्म की नैतिकता में भी संकल्प की स्वतंत्रता का विरोध इन दो मान्यताओं के आधार पर होता है, एक तो यह कि सभी सच्चे मानवीय सद्गुण दैवीय कृपा पर निर्भर है और दूसरे यह विश्वास कि ईश्वर को पूर्वज्ञान होता है। यहां हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि ईसाई चिंतन के विकास में संकल्प-स्वातन्त्र्य और नियतता के विरोध को अधिक गहनता से अनुभव किया गया और इसके निराकरण या अतिक्रमण करने के लिए गम्भीर प्रयत्न भी किए गए हैं। ईसाई धर्म में विभिन्न मतों का विकास
ईसाई धर्म के नैतिक विचारों के उपरोक्त विवरण में यह संकेत किया जा चुका है कि जिन लक्षणों का विवरण दिया गया है, वे सभी लक्षण समान रूप से या पूर्ण समरूपता के साथ ईसाई धर्म-संस्था के सम्पूर्ण जीवन में अपनी अभिव्यक्ति नहीं कर पाए हैं। इसका आंशिक कारण तो ईसाई धर्म की बाह्य परिस्थितियों का परिवर्तन और जिन समाजों का यह प्रमुख धर्म रहा, उनमें सभ्यता के विकास की मात्रागत अंतर था। इसका दूसरा आंशिक कारण आंतरिक विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया थी, जिसमें समय-समय पर भिन्न-भिन्न तथ्यों को प्रमुखता प्रदान की गई। पुनः, समय-समय पर प्रकट होने वाले विचारधाराओं के प्रमुख संघर्षों ने ईसाई समाज में आपस में ही तीव्र मतभेद उत्पन्न किया। ये मतभेद कभी-कभी नैतिक प्रश्नों के सम्बंध में भी होते थे, यहां तक कि पूर्वी चर्च में चौथी शताब्दी तक मतवादों के निर्माण के प्रयास होते रहे। इस प्रकार इस नव-स्थापित ईसाई धर्म की लोक-विरोधी प्रवृत्तियों को तुरतलीयन (160-224) ने उग्र रूप में एवं कठोरतापूर्वक अभिव्यक्त किया, जो मोन्टानिस्ट के धर्म में अतिरंजित रूप से प्रकट हुई और अंत में तुरतलीयन ने स्वयं उस धर्म को स्वीकार कर लिया। दूसरी ओर, सिकन्दरिया के क्लेमेन्स ने उस युग की सामान्य प्रवृत्ति के विरोध में ईसाई विश्वास को सच्चे ज्ञान के रूप में विकसित करने के लिए गैर ईसाई दर्शनों के मूल्यों को भी स्वीकार किया और ईसाई जीवन की सामान्य पूर्णता के लिए विवाह के माध्यम से मनुष्य के स्वाभाविक विकास के महत्व को मान्यता दी। इसके पश्चात् हम देखते हैं कि जब कन्स्टेन्टीन के द्वारा नागरिकों और