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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/34 तरह सही थे, जहां तक कि उनके गुरु की वैयक्तिक नैतिकता या उसके दार्शनिक लक्ष्यों एवं मान्यताओं का प्रश्न था। एक और जब हम झेनोफोन और प्लेटो की तुलना करते हैं, तो हम आवश्यक रूप से यह अनुभव करते हैं कि सुकरात के तर्कों के निषेधात्मक परिणाम उनके विधायक परिणामों की अपेक्षा तार्किक दृष्टि से अवश्य ही अधिक बलवान् रहे होंगे, ताकि वे किसी नैतिक उत्साह से रहित, किंतु बौद्धिक दृष्टि से अधिक सक्रिय एवं मर्म अन्वेषक मस्तिष्कों पर अपना पूर्ण प्रभाव डाल सकें । यद्यपि इसके साथ ही वे अपने व्यावहारिक ज्ञान एवं आचरण के द्वारा लिखित अथवा अलिखित नैतिक नियमों का पालन करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित भी करते हैं। उनका एक सच्चा अनुयायी यह मानने के लिए विवश होगा कि उनके आज्ञा पालन सम्बंधी तर्कों में विघातक तर्कों की अकाट्यता का अभाव है। दूसरी ओर सुकरातीय पद्धति के लिए यह भी आवश्यक होगा कि जिस विशिष्ट सदेहवाद को वह सतत् रूप से विकसित करती है उसे मानव की साधारण बुद्धि में उपस्थित स्थाई एवं सामान्य आस्था के साथ मिला दिया जाए। यद्यपि सुकरात सदैव ही जन साधारण की धारणाओं पर कुठाराघात करते हैं और उनकी असंगतियों के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि उन्हें यथार्थ ज्ञान नहीं माना जा सकता है, तथापि वे अपने तर्कों के आधार-वाक्य के रूप में सदैव ही जन साधारण के विचारों को लेते हैं। अक्सर वे अपने साथ वादविवाद करने वाले लोगों से ही अपने तर्क का आधार वाक्य ले लेते हैं, साथ ही वे यह भी मानते हैं कि ज्ञान जन साधारण के विचारों को उखाड़ फेंकने वाला नहीं, वरन् उनमें संगति बैठाने वाला है। यह तथ्य सत्य की प्राप्ति के लिए संवाद की अनिवार्यता से स्पष्ट हो जाता है। विचार-विमर्श (चर्चा) ही एक ऐसा मार्ग है, जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्ति की आशा की जा सकती है।
जिस ज्ञान का हमने उल्लेख किया, वह ज्ञान मनुष्य के प्रारंभिक शुभ का ज्ञान है और यही उनकी द्वन्द्वात्मक विचार पद्वति का मुख्य एवं प्राथमिक विषय है, किंतु हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि उन्होंने मानवीय जीवन पद्धति को विवेकपूर्ण बनाने के लिए केवल इस परम शुभ के ज्ञान को ही पर्याप्त मान लिया है। सुकरात न केवल शुभ सद्गुण और सुख को हमारी वास्तविक इच्छा मानते हैं, वरन् उसे करणीय भी मानते हैं। साथ ही व्यावहारिक बुद्धि के क्षेत्र में आने वाले सभी प्रत्ययों को परिभाषित करने का प्रयास करते है, चाहे