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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 85 जिन्हें वरेण्य' माना, अकादमी के विद्वानों ने उसे 'शुभ' के रूप में स्वीकार किया। अकादमी के विद्वानों ने शुभ के पुराने त्रिवर्गीय विभाजन को स्वीकार किया, अर्थात् 1. आत्मा का शुभ अर्थात् सद्गुण, 2. शरीर का शुभ अर्थात् स्वास्थ्य एवं अंगों को कार्य के पूरी तरह योग्य होना और 3. बाह्य शुभ, जैसे- सम्पत्ति, शक्ति, सम्मान आदि। इस वर्गीकरण के अनुसार उन्होंने यह माना कि सद्गुण मुख्य शुभ है, किंतु यह शुभ का एकमात्र घटक नहीं है। जब प्लेटो के सम्प्रदाय की तेजस्विता सदेहवाद (लगभग 275-100 ई.पू.) में तिरोहित हो गई, तब एक दूसरा दृष्टिकोण अस्तित्व में आया, जो इससे बहुत अधिक भिन्न तो नहीं है, किंतु बाह्य परिस्थितियों को अधिक महत्व देता है। इसे अरस्तू के चक्रमण सम्प्रदाय के द्वारा स्वीकार किया गया था। यह चक्रमण सम्प्रदाय नैतिकता और कल्याण के सम्बंध में संतुलित परम्परागत दृष्टिकोण को जो स्टोइक विरोधाभास के विरोध में था और जो अपने मनीषा को ही निरपवाद रूप से सभी वांछनीय गुण का श्रेय प्रदान करने पर जोर देता था। अकादमी का संशयवाद एवं समन्वयवाद
___आर्कसिलिक्स (315 ई.पू. से 240 ई.पू.) के नेतृत्व में प्लेटो के सम्प्रदाय ने दार्शनिक संदेहवाद की महत्वपूर्ण दिशा ग्रहण की। यहां हमें यह ध्यान रखना होगा कि अकादमी के विद्वान् चिंतक अरस्तू के परवर्ती युग के प्रथम संदेहवादी नहीं थे। इनके पूर्व भी झेनो एवं इपीक्यूरस के समकालीन इलिस के पायरो का यह सिद्धांत था कि परम्परागत मान्यताओं को पूर्णतया त्याग देना एवं वासना रहित आत्मा के समत्व की उपलब्धि ही सबसे अच्छा मार्ग है, जिसका गुणगान स्टोइको एवं इपीक्यूरीयनों ने भी किया था। पायरो
और आर्कसीलिक्स में कितनी समानता है, यह निश्चित रूप से जान लेना कठिन है, क्योंकि जब प्लेटो की वैयक्तिक शिक्षा की परम्परा समाप्त हो गई थी, तब पायरो के सिद्धांत के प्रभाव के अतिरिक्त भी प्लेटो के बहुत से संवादों में सशक्त रूप से अभिव्यक्त सुकरातीय पद्धति के निषेधात्मक पहलू ने उन व्यक्तियों को, जिन्होंने प्लेटो के ग्रंथों के माध्यम से प्लेटो के सिद्धांतों को समझा था, सदैहवाद की दिशा में किस प्रकार तीव्रता से अग्रसर किया, यह हम सरलतापूर्वक जान सकते हैं। यहां तक कि रिपब्लिक जैसे विधायक संवाद में भी प्लेटो ने इस इंद्रियानुभूति के विषय तथ्यात्मक जगत् को जिसमें दार्शनिक का कार्य करना होता है, सही अर्थ में ज्ञान का विषय न मानकर धारणा का विषय माना है, इसलिए