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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 114
हो । ईसाई चेतना में उपस्थित इस धारणा ने उन्हें ईसा के प्रति विश्वास और श्रद्धा के लिए अवियोज्य से बांध दिया था। ईसा, जो कि बुराई के प्रति लड़ी जाने वाली लड़ाई
नेता था और साध्यरूपी राज्य का शासक था (जिस राज्य की उपलब्धि की जाना है)। यद्यपि जहां तक यहूदी ईसाई अथवा इनके परवर्ती मुसलमान धर्म का प्रश्न है, उनके बीच कोई नैतिक अंतर नहीं है, सिवाय इसके कि ईसाई धर्म में व्यक्ति श्रद्धा का केंद्र मानवीय और दैवीय गुणों से युक्त ईसा को माना गया है और कर्त्तव्य का नियम ईसा के पूर्णतामय जीवन की अभिव्यक्ति के द्वारा प्रभावपूर्ण ढंग से सिखलाया गया है, एक वास्तविक ईसाई और एक नैतिक व्यक्ति के अंतर को आस्था और कर्म के विरोध के द्वारा स्पष्ट किया गया है। यहां आस्था का तात्पर्य ईश्वरीय नियम की निष्ठापूर्वक स्वीकृति और नियम - प्रदाता के प्रति श्रद्धापूर्ण समर्पण से अधिक ही है। यह एक ऐसी चेतना की अपेक्षा करता है, जो निरंतर रूप से उपस्थित होते हुए भी निरंतर अतिक्रमण करती रहती है, ऐसी चेतना, जो नियम के मानवीय अनुपालन की अपूर्णताओं के साथ ही अपूर्णता में निहित तथ्यों की अक्षम्य आलोचनांओं से बनी हो। साधारण मानवीय सद्गुणों को महत्वपूर्ण नहीं मानने की स्टोइक धारणा और यह विरोधाभास कि सभी पापी निरपेक्ष रूप से दोषी होने के कारण, समान है, ईसाई धर्म में भी कुछ रूप में पाया जाता है, किंतु ईसाई धर्म में नैतिक प्रमापक के लिए इस परिशुद्धता के आदर्श के साथ ही स्टोइकों से बिलकुल भिन्न एक भावनात्मक चेतना को भी मान्य किया गया है। इसके साथ ही वह श्रद्धा (आस्था) के द्वारा व्यावहारिक अनन्यता पर विजय पा लेता है। इस रक्षक विश्वास को दो रूपों में विवेचित किया जा सकता है, जो कि भिन्न-भिन्न होते हुए भी साधारणतया एक दूसरे से मिले हुए हैं। प्रथम दृष्टिकोण के अनुसार श्रद्धा करने वाला ईश्वर की दैवीय कृपा या अनुग्रह का पात्र होता है, जो कि एक ऐसी शुभता है, जिसके लिए वह स्वाभाविक रूप से अयोग्य है। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार यह एक ऐसा आश्वासन देता है कि यद्यपि व्यक्ति स्वयं तिरस्कार का पात्र एवं पापी है, फिर भी पूर्ण न्यायी परमात्मा ईसा के द्वारा सहे गए कष्टों और सेवाओं के आधार पर उस पर दया करेगा। उपरोक्त दोनों दृष्टिकोणों में प्रथम दृष्टिकोण ईसाई के इतिहास के सभी युगों में सामान्यतया उपस्थित रहता है और अधिक परम्परागत (कैथोलिक) है, जबकि दूसरा दृष्टिकोण पाउलिन के धर्मपत्र में विवेचित ईसा के प्रायश्चित्त के रहस्य को अधिक गहराई के साथ उपस्थित करने का दावा करता है ।