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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/112 युगों में पाई जाती है। यद्यपि ऐसा विरोधी दृष्टिकोण सामान्यतया ईसाई धर्म की नैतिक चेतना के द्वारा पूरी तरह से अस्वीकृत किया गया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह अंतरात्मकता अर्थात् आत्मा और हृदय की सम्यक्ता ईसाई शुभत्व का मुख्य एवं विशिष्ट लक्षण है। वस्तुतः यह भी नहीं मानना चाहिए कि केवल बाह्य कर्तव्यों की पूर्ति के अतिरिक्त किसी अन्य आवश्यकता को परवर्ती यहूदी धर्म के द्वारा भुला दिया गया था। गुरु हमवादी पांडित्य भी दसवें आदेश में बुरी इच्छाओं के दमन को नहीं भुला सका था। परवर्ती पैगम्बरों के द्वारा विधि विधानों के विवरण में ईश्वर की हार्दिक एवं प्रेमपूर्ण सेवा की - आवश्यकता पर अथवा विनम्रता और श्रद्धा को हृदय में धारण करने पर अधिक जोर दिया गया। तलभूत का कहना है कि वस्तुतः एवं मात्र फेरिसी (पाखंडी) वह है, जो अपने पिता की आज्ञाओं का अनुसरण इसलिए करता है, क्योंकि वह उस पिता से प्रेम करता है। किंतु यह सत्य है कि एक धर्मशास्त्री और एक पाखंडी के आचरण की उचितता के विरोध में हमेशाअंतर्मुखता की आवश्यकता को प्रतिपादित किया गया है, जो कि ईसाई नियमों का एक विशिष्ट लक्षण है। अंतर्मुखता केवल निषेधात्मक नहीं है जो कि बुरी इच्छाओं और बुरे कार्यों का निरोध करती है किंतु उसमें आत्मा की आंतरिक अवस्था की एक विधायक साधुता भी निहित है। ईसाई और अन्य विचारकों की अंतरात्मकता
इस सम्बंध में ईसाई धर्म की तुलना स्टोइकवाद से की जाना अपेक्षित है। यदि हम सुखवादी सम्प्रदायों को छोड़ देते हैं तो वस्तुतः यह तुलना न केवल स्टोइकवाद में वरन् सज्ञी अंध गैर ईसाई नैतिक दर्शनों से भी की जा सकती है। उद्देश्य की सम्यक्ता और सद्गुण का स्वतः साध्य के रूप में चुनाव और दुर्वासनाओं को ऐच्छिक दमन को अरस्तू-वादियों ने नीतिशास्त्र का महत्वपूर्ण विषय माना था। उन्होंने अपने सद्गुण सम्बंधी दृष्टिकोण में स्टोइकों की अपेक्षा बाह्य परिस्थितियों को कम महत्त्व नहीं दिया था। वे स्टोइक जिनके लिए समग्र बाह्य वस्तुए महत्त्वहीन हैं। ईसाई
और गैर ईसाई नीतिशास्त्र के बीच मृत्यु अंतर हृदय अथवा उद्देश्य की सम्यवता के मूल्य सम्बंधी विभेद के आधार पर नहीं है, किंतु इस आंतरिक सम्यक्ता की विभिन्न आवश्यक शर्तों अथवा उसके वास्तविक स्वरूप सम्बंधी दृष्टिकोण की भिन्नता के आधार पर है। दोनों में से किसी में भी, इसे नैतिक साधुता के रूप में सरल एवं विशुद्धतया प्रस्तुत नहीं किया गया है। गैर ईसाई दार्शनिक के लिए यह अंतरात्मकता सदेव ही ज्ञान या प्रज्ञा के रूप में स्वीकार की गई। सुकरात से उत्पन्न होने वाले सभी