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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/108
अध्याय - 3
ईसाई धर्म एवं मध्ययुगीन नीतिशास्त्र
प्रस्तुत विवेचना में हमारा सम्बंध न तो ईसाई धर्म की उत्पत्ति से है और न उसके इतिहास से ही। ईसाई धर्म प्रथम तीन शताब्दियों में निर्विघ्न रूप से विकसित होता रहा और उसने ग्रीक-रोमन धर्म के ऊपर अंतिम रूप से विजय प्राप्त कर ली, किंतु वह कान्सटेन्टिनोपल में केंद्रित है, लेकिन सभ्यता के हास को रोकने में असमर्थ रहा, साथ ही वह सातवीं शताब्दी में अरब में उत्पन्न नवीन धार्मिक गतिविधियों की शक्ति के सामने दक्षिण एवं पूर्व में अपने को बनाए रखने में सफल नहीं हो सकता, फि र भी वह बर्बर लोगों के पश्चिमी साम्राज्य की सामाजिक दुर्व्यवस्था को नियंत्रित करने में सफल रहा। उसका मुख्य योगदान उस दुर्व्यवस्था में से एक ऐसी नई सभ्यता का विकास करना था, जिसमें हम लोग आज रह रहे हैं। ईसाई धर्म बदलते हुए एवं जटिल सम्बंधों, राजनीतिक व्यवस्थाओं, सामाजिक जीवन, विकासशील विज्ञान और हमारे वर्तमान विश्व की साहित्यिक एवं कलात्मक संस्कृति के साथ तब से आज तक खड़ा रहा है, किंतु प्रस्तुत विवेचना में हमारा सम्बंध उपरोक्त बातों से नहीं है और न हमें उन विशेष सिद्धांतों का अध्ययन करना है, जिन्होंने ईसाई समुदायों को एक सूत्र में बांध कर रखा है। हमारा विवेच्य विषय केवल उसके सिद्धांतों का नैतिक पक्ष है अथवा उन सिद्धांतों का मानवीय जीवन के साध्य एवं क्रियाओं को सुनियोजित करने में उसका पड़ने वाला प्रभाव है, यद्यपि यह पहलू ईसाई धर्म की विवेचना में अनिवार्यतया प्रमुख होना चाहिए था, किंतु यदि हम केवल ईश्वर द्वारा प्रतिपादित उसके धार्मिक विश्वासों की ही विवेचना करते हैं, तो इस पक्ष पर पूर्णतया प्रकाश नहीं डाला जा सकता है, किंतु वह समग्र मनुष्य को शासित करने का दावा करता है
और मनुष्य के जीवन का कोई भी भाग उसकी नियामकता और संक्रमित प्रभावों से अछूता नहीं रह जाता है। ईसा की चौथी शताब्दी तक ऐसा कोई भी प्रयास नहीं हुआ, जिसे ईसाई नैतिकता को व्यवस्थित रूप से अभिव्यक्त करने का प्रयत्न कहा जा सके। पुनः, कैथोलिक चर्च के नैतिक सिद्धांतों को पूर्णतया वैज्ञानिक रूप देने के लिए महान् ग्रीक चिंतकों के गहन अध्ययन के द्वारा प्रशिक्षित एक सच्ची दार्शनिक प्रज्ञा को विकसित होने में 900 वर्ष और लग गए। थामस एक्विनास में अपने परमबिंदु पर