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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/104 को वस्तओं के चनाव के विवेक के रूप में और सहनशीलता को सहन करने के विवेक के रूप में परिभाषित किया है। इस कथन को इस सम्प्रदाय के दृष्टिकोण का परिचायक जाना जा सकता है। 32. इस सम्प्रदाय के सदस्यों ने सद्गुण या ज्ञान की परिभाषा को स्वीकार नहीं करते हुए भी उसे शक्ति और बल के रूप में परिभाषित किया। स्टोइकों ने भौतिक दृष्टि से शक्ति को ईथर का एक तनाव माना। उनकी दृष्टि में यह बल ही आत्मा का तत्त्व है। देखिए, टिप्पणी 1, पृष्ठ 78 33. ड्यटी नामक पद का अनुवाद कर्त्तव्य के रूप में करना सम्भवतः भ्रांतिजनक होगा, क्योंकि कर्त्तव्य के नाम जाना जाने वाला कोई भी कार्य जब तक सत्प्रेरणा के द्वारा नहीं किया जाता वह सत्कर्म नहीं कहला सकता। सत्प्रेरणा अर्थात् मन की विशद्ध विवेकपूर्ण अवस्था है, जिसके अभाव में सत्कर्म मात्र बाह्य समायोजन ही होगा। 34. यह पंक्ति क्लेनथस से उद्धृत की गई है, जिसने झेनो और क्रिसींपस के बीच स्टोइक सम्प्रदाय की अध्यक्षता की थी। 35. यश-कीर्ति के सम्बंध में स्टोइको के दृष्टिकोण में मतभेद प्रतीत होता है। जब प्रारम्भ में इस सम्प्रदाय पर सिनिकवाद का प्रभाव था, उन्होंने इसके प्रति आंतरिक एवं बाह्य-दोनों दृष्टि से उदासीनता प्रकट की, किंतु अंत में उन्होंने जन साधारण के दृष्टिकोण को अपना लिया और यश-कीर्ति को वरेण्य मान लिया 36. यह उदाहरण विभिन्न स्टोइक विचारकों ने अनेक बार दिया है, किंतु मुझे उस महत्वपूर्ण सिद्धांत के संदर्भ में, जिससे मैंने इसे जोडा है, यह अधिक संगत लगता है
और सिसरो के आधार पर हमें यह पता लगता है, इसका इस प्रकार इस उदाहरण का उपयोग इस सम्प्रदाय के दूसरे सदस्यों ने भी किया है। 37. सामान्यतया स्वीकृत सिद्धांत लगता है कि स्टोइक मनीषी, जब तक उसे कोई विशेष बाधा रोकती नहीं है, वह सामाजिक जीवन में भाग लेता है। यद्यपि इस सम्प्रदाय के आलोचक यह मानते हैं कि स्टोइक दार्शनिकों को व्यवहार में ऐसी बाधाएं अक्सर मिलती हैं। 38. जहां तक मैं जानता हूं, निश्चित ही यह परिवर्तन सिसरो के पूर्व नहीं आया था। 39. सिरनेक्स के द्वारा यह मान लिया गया था कि एक मनीषी भी अविच्छिन्न आनंद