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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 91 सीनेका (मृत्यु सन् 65 ई.)
उदाहरणार्थ, सीनेका के लेखनों में परवर्ती स्टोइकवाद के इसी पक्ष पर अधिक बल दिया गया है। वह अपने को एक मनीषी कहने का दावा तो नहीं करता, किंतु प्रज्ञा की दिशा में प्रगति के मार्ग का एक पथिक अवश्य कहता है। यद्यपि सद्गुणों की प्राप्ति के मार्ग की खोज सरल है, किंतु ऐसा जीवन जीना कठिन है। यह जीवन वासनाओं और पापों से एक सतत् संघर्ष का जीवन है, एक ऐसा युद्ध, जिसमें कहीं विश्राम नहीं है, जिसकी तैयारी के लिए मनुष्य को स्वेच्छा से ही स्वल्प एवं रूखा सूखा भोजन तथा मोटा कपड़ा लेकर कई दिनों तक संन्यास-जीवन की साधना करनी होती है। एपीकटेटस
इसी प्रकार एपीकटेटस ने भी इस बात पर जोर दिया है कि वास्तविक रूप में एक स्टोइक मनीषी को खोज पाना असंभव ही है। वस्तुतः वे लोग भी बहुत ही कम हैं, जो अपने आप को ईमानदारी के साथ प्रज्ञा की दिशा में प्रगति के लिए लगाना पसंद करते हैं, अथवा जो संयम और सहिष्णुता के महत्त्वपूर्ण शब्दों को हृदय से स्वीकार करते हैं। इस प्रकार सीनेका और ऐपीकटेटस का दर्शने मनुष्य को अपनी कमजोरियों और विकृतियों से स्वस्थ करने वाला दर्शन है। जिसका सम्बंध मानवीय विकृतियों से है, अन्य बातों से नहीं। वह प्रज्ञा, जिसके द्वारा दर्शन मनुष्य को स्वस्थ बनाता है एक ऐसा गुण है, जिसके लिए लम्बे वादविवादों या सूक्ष्म विवेचनाओं की आवश्यकता नहीं है, वरन् जो सतत् साधना एवं
आत्म अनुशासन तथा आत्मालोचन की अपेक्षा करता है। अपने परवर्ती लेखनों में विचार और आचार (सिद्धांत और तथ्य) का यही अंतर स्टोइकवाद के धार्मिक पक्ष को एक नई शक्ति और अर्थ देता है। अपनी कमजोरियों के प्रति सजग आत्मा ही ईश्वर के साथ अपने सम्बंध के विचार पर अधिक आश्रित रहता है। स्टोइक अपने आपको ईश्वर का पैगम्बर या देवदूत मानते हैं। बाह्य घटनाओं के प्रति आत्म संतुलित साक्षी भाव का आदर्श दृष्टिकोण पवित्र समर्पण की अपेक्षा अब अधिक महत्वपूर्ण नहीं माना गया था। प्रज्ञा पर आत्म निर्भरता की प्राचीन धारणा, जो कि मनुष्य के स्वाभाविक जीवन को मात्र बुद्धि का कर्मक्षेत्र मानती थी, अब क्रमशः क्षीण होती जा रही थी और आत्मा की शक्तियों को कुण्ठित करने वाली एवं बंधन में डालने वाली विजातीय वासनाओं के प्रति एक विधायक वैराग्य के लिए स्थान बनता जा रहा था। शरीर एक ऐसा पिण्ड है, जिसे आत्मा जीवित रखती है। जीवन एक अजनबी धरती