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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/70 कल्याण के निषेधात्मक पहलू पर अधिक बल देते हैं, जो वैराग्ययुक्त कल्याण शारीरिक स्वास्थ्य एवं शक्ति, सुंदरता, सुख, सम्पत्ति, उत्तम जन्म और यज्ञ (समर्पण) कीर्ति की उपलब्धि से स्वतंत्र हैं, जबकि स्टोइक कल्याण के विधायक पहलू को अधिक महत्व देते हैं। उनके अनुसार दृढ़ कष्ट सहिष्णुता (दुःखों से आत्मशांति का भंग नहीं होना) प्रसन्नता और आध्यात्मिक आनंद प्रज्ञा की उपलब्धि से अनिवार्यतया प्राप्त हो जाते हैं. यद्यपि यह अंतर सिनिक्स और स्टोइक विभेद का आधार नहीं है। वस्तुतः स्टोइक भी भौतिक आवश्यकताओं की सीमा रेखा को कठोरतापूर्वक कम से कम करने की सिनिक मान्यता का जन साधारण की इच्छाओं और दार्शनिक लक्ष्यों के मूलभूत विरोध को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने का विचार किए बिना ही समर्थन करते हैं, जो कि न तो आवश्यक है, न स्वाभाविक ही, तो भी विशेष परिस्थितियों में मनीषियों के द्वारा लाभप्रद रूप से अपनाया जा सकता है।28 स्टोइकवाद (निर्विकार मनीषी)
तब वह ज्ञान या प्रज्ञा जो कि मनुष्य को पूर्ण और स्वतंत्र बनाती है, इस बात में निहित है और जिस पर सिनिक और स्टोइक-दोनों ही इस बात में सहमत हैं, वही महत्त्वपूर्ण तथ्य है, जिसके आधार पर विवेकशील और अविवेकशील में अंतर किया जा सकता है और वह इस स्वीकृति पर निर्भर है कि मनुष्य का सम्पूर्ण शुभ ज्ञान अथवा प्रज्ञा में ही निहित है। हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि स्टोइक और सिनिक भी सुकरात के समान ही यह मानते हैं कि शभ का ज्ञान जीवन में शुभ की उपलब्धि से भिन्न नहीं हो सकता है, यद्यपि वे यह मानते हैं कि ऐसे जीवन की समयावधि अधिक महत्वपूर्ण नहीं होती है। कोई भी व्यक्ति, जिसने एक क्षण के लिए भी पूर्ण प्रज्ञा की उपलब्धि कर ली है, वह मानवीय कल्याण की पूर्णता को प्राप्त कर लेगा। उस अलगाव के पश्चात्, जिसे प्लेटो से अरस्तू के विचारों की ओर बढ़ते हुए देखा था, स्टोइक का पुनः सुकरात की और लौटना बहुत ही ध्यान देने योग्य है। यह उनके मनोविज्ञान में बौद्धिक आत्मा की एकता पर दिए गए बल पर निर्भर है। यह बौद्धिक आत्मा ही मानवीय चेतन क्रियाओं का मूल स्रोत है। यह बौद्धिक आत्मा की एकता ही उन्हें कार्यों की प्रेरणा के उस प्लेटोवादी विश्लेषण को स्वीकार करने से रोकती है, जिसमें कि कार्यों की प्रेरणा का विश्लेषण, नियामक तत्त्व और वह तत्त्व, जिसके नियमन की आवश्यकता है, के