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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/82 वर्तमान शुभ का यथार्थ परिणाम प्रस्तुत कर सकता है। मन की इस अविक्षुब्ध (प्रशांत) अवस्था की प्राप्ति के लिए दर्शन महत्वपूर्ण एवं अपरिहार्य है। क्योंकि मनुष्य को भविष्य के प्रति सर्वाधिक भय अपनी मृत्यु की आशंका से तथा देवताओं की नाराजगी की आशंका से उत्पन्न होता है और इन आशंकाओं के स्रोत को भौतिक विश्व और उसमें मनुष्य के स्थान के वास्तविक ज्ञान के द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है। नीतिशास्त्र जिस मुक्ति की आवश्यकता बताता है, वह भौतिक शास्त्र के द्वारा प्राप्त की जा सकती है।
इपीक्यूरस ने हेमाक्रिटस के अनुसरण से इसे खोजा है। हेमाक्रिटस ने इस भौतिक विश्व की संरचना को किसी नियामक प्रज्ञा के हस्तक्षेप से रहित पूरी तरह यांत्रिक बताया है। इस सिद्धांत में देवता सृष्टि की संरचना के दृष्टिकोण से निरर्थक हो जाते हैं, किंतु इपीक्यूरस नास्तिक नहीं है। वह जन साधारण की इस धारणा को स्वीकार करता है कि ईश्वरीय कृपा प्राप्त एवं अमर प्राणियों का अस्तित्व है। मात्र यही नहीं वह यह भी मानता है कि मनुष्यों को समय समय पर जाग्रत अवस्था या स्वप्नों में उनकी प्रतिछाया का दर्शन होता है किंतु वह मानता है कि उनके क्रोध या प्रतिशोध से डरने का कोई कारण नहीं है। पुण्यात्मा एवं पूतात्मा देवताओं को कोई कष्ट नहीं है और न वे किसी को कष्ट देते ही हैं। वे न किसी पर कुपित होते हैं और न किसी पर प्रसन्न होते हैं।
इस प्रकार, मरणोपरांत जीवन की आशंका को दूर किया जा सकता है, किंतु मृत्यु की आशंका बनी रहती है, परंतु इपीक्यूरस का कहना है कि यह आशंका भी केवल वैचारिक भ्रम के कारण है। मृत्यु हमे भयानक इसलिए लगती है कि हम भ्रमवश यह मान लेते हैं, हमें मृत्यु प्राप्त होती है, किंतु सत्य है कि मृत्यु अनुभूत नहीं होती है। जब तक हम हैं कि मृत्यु नहीं है और जब मृत्यु है, हम नहीं हैं। मृत्यु कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती, क्योंकि जब तक हम है, मृत्यु हमसे अनुपस्थित है और जब मृत्यु होती है तो हम नहीं होते हैं (जब हम होते हैं, तो मृत्यु नहीं होती और जब मृत्यु होती है, तो हम नहीं होते हैं)। इस प्रकार वस्तुतः हमारे लिए मृत्यु है ही नहीं, मनीषी मृत्यु के विचार को ही त्याग देता है और अमरता की भावना से जीवन जीता है, वह प्रशांत एवं अनुद्विग्न अस्तित्व के आनंद से युक्त जीवन जीता है। ऐसे जीवन की सीमाएं होती हैं। यह हम पूरी तरह जानते हैं फिर भी वे सीमाएं हमारी अनुभूति का विषय नहीं है। संयम और धैर्य प्रज्ञा के आधार पर दृढ़तापूर्वक निर्मित दार्शनिक जीवन