________________
नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 81 को अलग कर दिया है, तो सुख का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह दर्शन अत्यधिक विषयासक्ति के अनुकूल है, किंतु जब हम यह मान लेते हैं कि शारीरिक अथवा मानसिक सुख के उच्चतम बिंदु की उपलब्धि केवल पीड़ाओंया बाधाओं को हटाने से ही होती है, तो हमारा सुख सम्बंधी दृष्टिकोण ही बदल जाता है। तब सुख में केवल रूपांतरण ही होता है, उसमें वृद्धि नहीं होती है, इसलिए शरीर जिससे सर्वाधिक संतुष्टि को प्राप्त कर सकता है, वह भौतिक सम्पदा है, जो कि उस संतुष्टि को प्राप्त करने का सरलतम साधन है और उस भौतिक सम्पदा का उपार्जन प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है। यह सिद्धांत प्लेटो के रिपब्लिक में प्रस्तुत ऐन्द्रिक सुखों के प्रति अपनाए गए हीन दृष्टिकोण से काफी निकटता रखता है, किंतु हमें सावधानीपूर्वक उससे इसकी भिन्नता को समझ लेना होगा। प्लेटो का कहना था कि ऐन्द्रिक सुखवादियों के द्वारा केवल जीवन की आवश्यकताओं से उत्पन्न दुःख की निवृत्ति को सुख मानने की गलती उसके दुःख विरोधी होने के कारण भ्रमवश हो जाती है, किंतु इपीक्यूरस की मान्यता यह है कि जैविक आवश्यकताओं की संतुष्टि से शांत एवं मन के अनुकूल अनुभूति होती है, ऐसा दुःख जो आकांक्षाओं से अविक्षुब्ध नहीं होने वाले सामान्य जीवन का सहगामी है। यह मन की संतुलित अवस्था (स्थिरमति) का सुख ही विधायक सुखों के गुण में उच्चतम कोटि का है। स्थूल सुखवाद (मनोवाद) और सिरेनेक दर्शन से इपीक्यूरीयनवाद का दूसरा एवं सुनिश्चित अंतर यह है कि यद्यपि शरीर ही सब सुखों का मूल आधार है तथापि मानसिक सुख एवं दुःख शारीरिक सुख-दुःख की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उनमें स्मृति और प्राग्ज्ञान से उत्पन्न भावों का संचयन भी होता है। यदि इन दोनों स्थितियों को स्वीकार कर लिया जाए तो इपीक्यूरस भी अपने मनीषी के लिए आनंद की वह निरापद अवधारणा प्रदान करने में सक्षम है, जिसे सुख के लिए किए गए प्रयासों के द्वारा स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं किया जा सकता है। वह अपने अनुयायियों से यह वादा भी नहीं करता है कि शारीरिक सुखों पर शारीरिक दुःखों की कभी भी प्रधानता नहीं होती है, यद्यपि वह इस विचार से कि सभी दैहिक दुःख या तो क्षणिक होते हैं या उनमें उतनी तीव्रता नहीं होती है, सांत्वना देने का प्रयत्न करता है। यह सम्भव है कि क्षणिक समय के लिए दुर्वासनाएं मनीषी के मन में भी अधिक दुःख पैदा कर सकती है तथापि मनीषी के लिए हमेशा यह संभव है कि वह मानसिक सुखों के द्वारा मन में संतुलन को बनाए रख सकता है तथा यदि उसका मन भविष्य के निरर्थक भय से उत्पन्न विक्षोभों से मुक्त रखा जाए, तो वह