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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 53 ने 'अकादमी' " के नाम से जानी जाने वाली अध्ययनशाला, जिसका जन्मदाता प्लेटो माना जाता था, के अध्यक्ष के रूप में उस संदेहवाद का निरसन कर दिया, जो कि इस बीच के काल में बहुत समय तक प्लेटो के पारम्परिक सिद्धांत के रूप में माना जाता रहा था। नैतिकता के सम्बंध में उसने जिस बात (सिद्धांत) का स्पष्टीकरण किया, उसके सम्बंध में प्लेटो और अरस्तू एकमत थे, ऐसा उसका निश्चित दावा था। अधिक गहराई से उसका अध्ययन करने पर हमें ज्ञात होता कि उसके इस दावे की पुष्टि के कुछ तात्त्विक आधार भी थे। यद्यपि अरस्तू अपने गुरु (प्लेटो) से मानवीय शुभ के सिद्धांत की रूपरेखा के सम्बंध में पूर्ण सहमत है, तथापि चाहे हम उसके नीतिशास्त्र का दूसरे शास्त्रों से सम्बंध के विषय में विचार करें या उसके सद्गुणों की व्यवस्था के विस्तार में जाएं, अरस्तू का प्लेटो से मतभेद स्पष्ट है। इपीक्यूरीयनों की परवर्ती की दृष्टि से इन दोनों पर दृष्टिपात करें या विचार करें, तो व्यावहारिक रूप से इनका यह विरोध भी समाप्त हो जाता है। यहां तक कि जिस मुख्य विचार बिंदु पर अरस्तू प्लेटो के विरोध में जाता है, वहां भी बाहर से जितना विरोध परिलक्षित होता है, वस्तुत: उतना विरोध नहीं है। अपने गुरु की मान्यताओं के जिस भाग पर अरस्तू वस्तुतः आक्षेप करता है, वे चिंतन से निष्पन्न न होकर कल्पना से प्रसूत ही हैं। प्लेटो की वैचारिक कल्पना अरस्तू के विश्लेषण के माध्यम से ही मुख्य विधायक परिणामों की स्पष्टता को प्राप्त होती है।
जैसा कि हमने देखा, प्लेटो के अनुसार एक परम विज्ञान या परम प्रज्ञा है, जिसका अंतिम विषय निरपेक्ष शुभ है। इसी निरपेक्ष शुभ के ज्ञान में सभी विशेष शुभों का अथवा जिन्हें हम बौद्धिक रूप से जानना चाहते हैं, उनका ज्ञान निहित है। सभी यावहारिक सद्गुण उसी निरपेक्ष शुभ के ज्ञान में अंतर्भूत हैं । कोई भी व्यक्ति, जो वस्तुतः यह जानता है कि वह शुभ क्या है, वह उस शुभ की उपलब्धि करने में भी असफल नहीं हो सकता है, अपितु उसके द्वारा वह तात्त्विक चिंतन और व्यावहारिक बुद्धि में तादात्म्य कर देता है, इस दृढ़ धारणा के बावजूद भी प्लेटो के लेखनों में उस निरपेक्ष शुभ के ज्ञान के द्वारा मानवीय कल्याण के व्यावहारिक निष्कर्षों को निकालने का कोई गम्भीर प्रयास दृष्टिगत नहीं होता है, साथ ही उसके ग्रंथों में उस निरपेक्ष शुभ के आधार पर विशिष्ट कलाओं और विज्ञानों का वर्णन तो नगण्य ही है। उसका कहना है कि जीवन विज्ञान या जीवन जीने की कला को ही अपने साध्य को स्पष्ट करना है। उसके अनुसार यह जीवन जीने की कला एक राजनीति है, क्योंकि अरस्तू के अनुसार