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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/54 मानवीय कल्याण राजनीतिक संस्थाओं पर निर्भर रहता है, इसलिए निरपेक्ष शुभ का ज्ञान उसमें बिलकुल उपयोगी नहीं होगा, जैसे यह ज्ञान विशिष्ट कलाओं और हस्तकौशल में उपयोगी नहीं होता है। इस प्रकार अरस्तू जिस बात का प्रतिषेध करता है, उसे सिद्ध करने के लिए प्लेटो ने कोई निश्चित तर्क प्रस्तुत नहीं किए हैं। जैसा कि हम स्पष्ट कर चुके हैं, अरस्तू चिंतन-विज्ञान या प्रज्ञा, जो कि शाश्वत और अव्यय सत्य से सम्बंधित है और व्यावहारिक बुद्धि या राजनीतिज्ञ के आदर्श, जिसका साध्य मानवीय या व्यावहारिक शुभ है, में स्पष्ट अंतर करता है। यह अंतर उस स्पष्ट रुप से स्वीकृत सिद्धांत का विरोधी है। प्लेटो ‘फलेयस' नामक संवाद में शुभ सम्बंधी विवेचना को पूर्णतया मानवीय शुभ से सम्बंधित करता है और यह बताता है कि क्रमशः 'विवेक' और 'सुख' उस मानवीय शुभ के निर्माण का दावा करते हैं। यह केवल ईश्वर सम्बंधी विचार' के प्रसंग में ही विश्व-शुभ (सुसंगठित विश्व के शुभ) की सांकेतिक चर्चा करता है, जो कि वस्तुतः हमारी प्रस्तुत विवेचना की सीमा से परे है। पुनः, आचारिक राजनीति के अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ दि लाज में उसकी विशिष्ट तत्त्वमीमांसा कहीं भी परिलक्षित नहीं होती है। दूसरी ओर, अरस्तू के द्वारा प्रस्तुत मानवीय शुभ और ईश्वरीय शुभ का सम्बंध इतना निकट का है कि हम यह नहीं मान सकते हैं कि प्लेटो ने उन्हें इससे भी अधिक निकट होने की कल्पना भी की होगी। अरस्तू की दृष्टि में जगत् का तात्त्विक शुभ सामान्य अमूर्त विचार की विशुद्ध क्रिया है। वह एक साथ विषय और विषयी दोनों ही है। वह स्वतः अपरिवर्तनशील (कूटस्थ)
और नित्य है, साथ ही वास्तविक जगत् में परिवर्तन की समग्र प्रक्रिया का अंतिम कारण एवं प्रथम स्रोत भी है। अरस्तू और प्लेटो-दोनों ही सामान्य अमूर्त चिंतन की प्रक्रिया के समान ही यह मानते हैं कि विशुद्ध चिंतनात्मक प्रज्ञा मानवीय अस्तित्व का सर्वोत्तम प्रकार है। दार्शनिक व्यक्ति यथासम्भव ऐसा जीवन जीना ही चाहेगा, यद्यपि एक मनुष्य होने के नाते उसे जनसाधारण के जीवन के आचार व्यवहार से भी सम्बद्ध होना पड़ेगा और इस क्षेत्र में उसे पूर्ण नैतिक अच्छाइयों (प्रकर्ष) की उपलब्धि के द्वारा ही अपने सर्वोच्च शुभ की प्राप्ति होगी। निस्संदेह अरस्तू के द्वारा नैतिक अच्छाई को देवताओं से असम्बंधित मानने का प्रयास प्लेटो के इस सिद्धांत कि न्यायी व्यक्ति देवताओं का प्रिय होता है। विरोधी है, किंतु यहां भी इस विरोध की दूरी को कम किया जा सकता है। यदि हम यह ध्यान में रखें कि प्लेटो के न्याय का सारतत्त्व संगति पूर्ण क्रिया है। निस्सदैह अरस्तू का सुख को दैवीय सत्ता का गुण मानना उसके प्लेटो