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भिक्वसोधी तब संज मस्स गुणकारिया तु पंचमए । छट्ठे आयारकहा, महती जोगा' महयणस्स || वयविभत्ती पुण सत्तमम्मि पणिहाणमदुमे भणियं । नवमे विणओ दस मे, समाणियं एस भिक्खु त्ति ||
२३.
दो अभरणा चूलिय, विसीययते थिरीकरणमेगं । बितिए' विवित्तरिया, असीयणगुणा तिरेगफला ॥ 'कालियस एसो५, पिंडत्थो वणितो समासेणं । एत्तो एक्केक्कं पुण, अज्झयणं कित्तहस्सा ।। २५. पडमञ्झणं दुमपुप्फियं ति चत्तारि तस्स दाराई । वणिक्क माई", धम्मपसंसाइ अहिगारो ||
२१.
२२.
२४.
२५) १. ओहो जं सामन्नं अणं अमीण,
सुताभिहाणं चउब्वि तं च । आयज्भवणा य पत्तेयं ॥
२५।२. नामादि चउभेयं
वण्णेकणं सुयानुसारेण । दुमपुस्फिय आओज्जा, चउसुंपि कमेण भावेसु ॥
१. जोगो ( अ, ब ) ।
२. ० हा अट्टमे ( अ ) |
३. बीए ( ब ) 1
४. वित्त ( अ ) ।
५. दसवेयालियम्स (जिचू), दसकालियरसेह ( अचू ) ।
६. वन्नइ० (जिचू), प्रस्तुत गाया दोनों चूर्णियों मैं उपलब्ध है। किन्तु मुनि पुण्यविजयजी ने अगस्त्यसिंह बूणि के संपादन में इसे नियुक्तिगाथा के क्रम में न रखकर उद्धृत गाथा के रूप में प्रस्तुत किया है। पंडित दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार यह गाचा उपसंहारात्मक और संपूर्ति रूप | टीका तथा आदर्शों में यह गाथा मिलती है। हमने इस गाथा को नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है क्योंकि अन्य नियुक्तियों में भी ऐसी उपसंहारात्मक गाथाएं मिलती हैं
उत्तरभरणासरे, पिंडत्यो वणितो समासेणं । तो एक्क्कं पुण, अकरणं कित्तइस्लामि || (उनि २७)
७.
८.
९.
१०.
निर्युक्तिपंचक
० ( अ ), बीउ० (हा ) ।
दोनों चूर्णियों में प्रस्तुत गाथा उल्लिखित नहीं है, लेकिन इसका भावार्थं दोनों चूर्णियों में मिलता है । कुछ पाठांतर के साथ उत्तराध्ययत नियुक्ति में भी ऐसी गाथा मिलती है। देखें उनि २६ ।
उनि २८ । १ ।
२५/१२ इन दोनों गाथाओं का चूर्णियों में कोई उल्लेख नहीं है। केवल 'तत्थ उबक्कमो जहा आवस्सए' इतना ही उल्लेख है । ये गाथाएं विशेषावश्यकभाष्य (गा. ९५८, ९५२) की हैं। हस्तलिखित आदर्शों में ये गाथाएं मिलती हैं। किन्तु ये गाथाएं व्याख्या के प्रसंग में बाद में जोड़ी गई प्रतीत होती है अतः इन्हें निगा के क्रम में नहीं रखा है । टीकाकार हरिभद्र ने इनके लिए 'चाह निर्मुक्तिकार:' ऐसा उल्लेख किया है ।