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सूत्रकृतांग नियुक्ति
२६. आध्यात्मिक बल के अनेक प्रकार हैं
. उद्यम-शान आदि के अनुष्ठान में उत्साह । ० अति-संयम में स्थिरता, चित्त का समाधान ।
धीरत्व कष्टों में अक्षुब्धता। ० शौण्डीर्य-त्याग करने का उत्कट सामथ्यं, जैसे चक्रवर्ती का मन अपने षट्खंड राज्य
को छोड़ते समय भी नहीं पता। आपदाओं में अविषण्णता । • क्षमा-दूसरों पर क्षुब्ध न होने का सामर्थ्य । • गांभीर्य-परीषहों तथा उपसगों को सहने में अधुष्टता अथवा अपने चमत्कारी
अनुष्ठान में भी अहंकारशून्यता । - उपयोग-आठ प्रकार के साकार उपयोग तथा चार प्रकार के अनाकार उपयोग से
युक्त। • योग-मनोवीर्य, वचनवीर्य तथा कायवीर्य से युक्त । ० तप-न्यारह प्रकार के तपोनुष्ठान को अग्लानभाब से करना ।
. संयम--सतरह प्रकार के संयम में प्रवृत्ति ।' ९७ सारा भाववीयं तीन प्रकार का है-पंडितवीर्य, बालवीर्य तथा बाल-पंडितवीर्य । अथवा वीर्य के दो प्रकार हैं-अगारवीर्य तथा अनगारवीयं ।
९८, (चौथे श्लोक के अन्तर्गत आए 'सत्थ (शस्त्र)' पद की व्याख्या) पास्त्र--खड्ग आदि प्रहरण । इसी प्रकार विद्याधिष्ठित, मंत्राधिष्ठित तथा दिव्य क्रियानिष्पादित-ये भी शस्त्र हैं। ये पांच प्रकार के हैं—पाथिय, वारुण, आग्नेय, वायव्य तथा मिश्र । नौवां अध्ययन : धर्म
९९. धर्म का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है। प्रस्तुत में भावधर्म का प्रसंग है। यही भावधर्म है और यही भावसमाधि तथा समाधिमार्ग है।
१७०. धर्म के चार निक्षेप हैं नाम, स्थापना, द्रश्य और भाव । द्रव्यधर्म के तीन प्रकार है सचित्त, अचित्त और मिश्र । गृहस्थों का कुलघमं, ग्रामघर्म तथा जो सनका दानधर्म है, वह द्रव्यधर्म है।
१.१. भावधम दो प्रकार का है लौकिक तथा लोकोत्तर । लौकिक धर्म दो प्रकार का है-गृहस्थों का तथा अन्यतीथिकों का । लोकोत्तर धर्म के तीन प्रकार हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र । ये तीनों पांच-पांच प्रकार के हैं।'
१. विद्याप्रवादपूर्व में अनन्त प्रकार के बीर्यों का वर्णन है । उसमें केवल वीर्य का ही प्रति
पादन है। २. देखें-दशनिगा ३६-४० । ३. ज्ञान के पांच प्रकार-मति, श्रुत, अवधि,
मनःपर्यव तथा केवल ।
दर्शन के पांच प्रकार-औपमिक, सास्वादन, क्षायोपसमिक, वेदक और क्षामिक । चारित्र के पांच प्रकार सामायिक. छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात ।