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परिशिष्ट : परिभाषाएं
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जो चार प्रकार को गतियों का क्षय करता है अथवा जो अण-कर्मों का क्षय करता है, वह क्षपण कहलाता है।
(दजिचू. पृ. ३३३, ३३४) खोतोदग-क्षोदोदक । खोतोदगं णाम उच्छुरसोदगस्स समुद्रस्य अधवा इहापि इक्षुरसो मधुर एव।
(सूच.१ पृ. १४८) • खोओदर इति इक्षुरस इवोदक यस्य इक्षुरसोदकः। जिस समुद्र का पानी इक्षु रस को तरह मोठा है, उसे क्षोदोदक कहा जाता है।
(सूटी, पृ. १००) गंधण- गंधन कुल का सर्प । गंधणा णाम जे डसिकण गया मंतेहिं आगच्छिया तमेव विसं वणमुपडिया
पुणो आविर्यति ते। जो सर्प इस कर चले जाते हैं तथा मंत्रों से आहूत होकर लौट आते हैं और इसे हुए स्थान पर मुंह रखकर वान्त विष को पुनः चूस लेते हैं, वे गंधनकुल के सर्प होते हैं।
(दशजिचू. पृ. ८७) गंभीर-गम्भीर । गंभीरो नाम न परीषदः क्षुभ्यते, दांतु वा कातुं वा णो उत्तुणो भवति।
जो परीषहों से क्षुब्ध नहीं होता तथा जो देने में तथा कार्य करने में उतावला नहीं होता, वह गंभीर है।
(सूचू.१ पृ. १६४) गणहर-गणधर । यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादेशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग् विहरति स गणधरः।
जो आचार्य के समान होता है तथा जो आचार्य के आदेश से साधु संघ को लेकर पृथक् विहरण करता है, वह गणधर है।
(आटी.पृ. २३६) गणावच्छेदय-गणावच्छेदका गणावच्छेदकस्तु गच्छकार्यचिन्तकः। जो गण के कार्य के विषय में चिन्तन करता रहता है, वह गणावच्छेदक है।
(आटी.पृ. २३६) गाणंगणिय-गाणंगणिक । गाणंगणिए त्ति गणाद् गणं षण्मासाभ्यन्तर एव संक्रामतीति गाणंगणिक
इत्यागमिका परिभाषा। जो छह महीनों के भीतर एक गण से दूसरे गण में संक्रमण करता है, वह मुनि गाणंगणिक कहलाता है।
(उशाटी. प. ४३५, ४३६) गाधा-गाथा। मधुराभिधाणजुत्ता, तेण गाह ति णं ति ।
जो मधुर उच्चारण से युक्त होती है, वह गाथा कहलाती है। (सूनि. १३८) • गाधीकता या अत्था अधवा सामुहएण छंदेण। जहां बिखरे अर्थों को पिंडीकृत-एकत्रित किया जाता है अथवा जो सामुद्रिक छंद में निबद्ध होती है, उसे गाथा कहा जाता है।
(सूनि १३९) गाम-ग्राम। ग्रसति बुद्धिमादिणो गुणा इति गामो। जहां बुद्धि आदि गुण ग्रस्त हो जाते हैं, वह ग्राम है।
(दशअचू. पृ. ९९) गिल्लियान विशेष। पुरुषद्वयोत्क्षिता झोल्लिका।। दो पुरुषों द्वारा उठाई जाने वालो कपड़े की झोली।
(सूटी. पृ. २२०) गुत्त-गुप्त । गुत्तो गाम मणसा असोभर्ण संकप्पं वज्जयंतो वापाए कजमेत्तं भासतो।।