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नियुक्तिपंचक
संगाम--संग्राम। समस्त ग्रस्यते ग्रस्यन्ते वा तस्मिन्निति संग्रामः। जो सबको ग्रस्त कर देता है, खा जाता है अथवा जिसमें सब ग्रस्त हो आते हैं, वह संग्राम
(सूचू.१ पृ. ७९) संजम-संयम। संजमी पाणातिवायविरती। प्राणातिपात (प्राणहिंसा आदि) से विरत होना संयम है।
(दशअचू. पृ. ११) • सव्वावत्यमहिसोवकारी संजमो।
जो हा धाों में हिंसा का उपकारक है, वह संयम है। (दशअचू, पृ. १२) संजममधुवजोगजुत-संयमध्रुवयोगयुक्त संजमधुपजोगेण जुसो जस्स अप्पा, स भवति संजमधुवजोगजुत्तो।
जिसकी आत्मा संयम के ध्रुवयोगों से युक्त है, वह संयमनुवयोगयुक्त है। (दचू.पृ. २१) संबलण-क्रोध। संजालनं नाम रोषोद्गमो मानोदयो वा। संज्वलन अर्थात् क्रोध या मान का उदय ।
(उचू, पृ. ७२) संजलण-क्रोधी। संजलणो णाम पुणो पुणो रुस्सइ, पच्छा चरित्तसस्स हणति डाइ वा अग्गिवत्। जो बार-बार कुपित होता है और चारित्र रूपी शस्य को जला देता है, वह संज्वलन- क्रोध
(दबू. प. ७) संजय-संयत। संजओ नाम सोभणेण पगारेण सत्तरसविहे संजमे अवडिओ संजतो भवति।
सतरह प्रकार के संवम में भली-भांति अवस्थित साधक संयत है। (दशजिचू. पृ. १५४) • आसु पुढविकायादिस त्रिकरणएकभाषेण जता संजता। पृथ्वी आदि छह जीवनिकायों के प्रति जो मन, वचन और काया से उपरत रहता है, उनकी हिंसा नहीं करता, वह संयत कहलाता है।
(दशअचू. पृ. ६३) संडिम्भ-बच्चों का क्रीडास्थल । संडिन्भ नाम बालरूवाणि रमति घणुहि। जहाँ बालक धनुष्य आदि से खेलते हैं, वह स्थान 'संडिळभ' कहलाता है।
(दशजिचू. पृ. १७१, १७२) संथव--संस्तव। संथयो णाम उल्लव-समुल्लाया-ऽऽदाण-गहणसंपयोगादि।
परस्पर आलाप-संलाप करना, देना-लेना, परस्पर मिलना-संस्तव है ।(सूचू.१ पृ. १२०) संथार-संस्तारक । संथारो अड्डाइजहत्थो आयतो। हत्थं समचठरंगुलं वित्यिण्णो।
• संपारगो यडाइजहत्याततो समचतुरंगुल हत्थं वित्थिपणो। ढाई हाथ लम्बा और एक हाथ चार अंगुल चौड़ा बिछौना संस्तारक कहलाता है।
(दर्शाजचू. पृ. १५८, दशअचू. पृ. ९१) संदीण-संदीनद्वीप। संदीपो पाम जो जलेण छाडेजति।
जो जल से आप्लावित होता है, वह संदीनद्वीप कहलाता है। (उचू, पृ. ११४) संषि-सन्धि । संधी जमलपराणं अंतरे। दो घरों के बीच का अंतर संधि कहलाता है।
(दशअचू. पृ. १०३) संपसारग-संघसारक। संप्रसारकः देववृष्ट्यर्थकाण्डादिसूचककथाविस्तारकः। देववृष्टि, अर्थकाण्ड आदि की सूचक कथा का विस्तार करने वाला संप्रसारक कहलाता
(सूटी.पृ. ४६)