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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
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सीबाग-श्वपाक । उग्गेण खत्तियाणीए सोयागो ति कुच्चइ।
उग्र पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न संतान श्वपाक कहलाती है। (आचू. पृ. ६) हद-हढ। हदो णाम वणस्सइविसेसो, सो दह-तलागादिस छिन्नमूलो भवति तथा वातेण य आइद्धो
इओ-तओ य णिज्जा। द्रह, तालाब आदि में जो मूल रहित वनस्पति होती है तथा वायु के द्वारा प्रेरित होकर इधरउधर हो जाती है, वह हट वनस्पति कहलाती है।
(दशजिचू. पृ. ८९) हत्य-हस्त। हसति येनावृत्य मुख हेति वा हस्ताः। जिससे मुंह ढककर हंसा जाता है अथवा जिनसे घात की जाती है, वे हाथ हैं।
(उचू. पृ. १३२) हरतणु-हरतनु, भूमि भेदकर निकलने वाले जलकण। हरतनुः भुवमुद्भिध तृणाग्रादिषु भवति। भूमि का भेदन करके जो जलबिन्दु तृणान आदि पर होते हैं, वे हरतनु हैं।
(दशहाटी. प. १५३) • वर्षा-शरत्कालयोहरिताइकुरमस्तकस्थितो जलबिन्दुभूमिस्नेहसम्पकोद्भूतो हरतनु शब्देनाभिधीयते। वर्षा और शरत्काल में हरितांकुरों के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु जो भूमि के स्नेह के संपर्क से उत्पन्न होता है, वह हरतनु कहलाता है।
(आटो. पृ. २७) हरियसुहम-हरितसूक्ष्म । हरितसुहमंणाम जो अहुट्टियं पुढविसमाणवपर्ण दुविभावणिज त हरियसाहुम। जो तत्काल उत्पत्रा, पृथ्वी के समान वर्ण वाला और दुर्जेय हो, वह अंकुर हरितसूक्ष्म है।
(दजिचू. पृ. २७८) हव्य-हव्य। ज हुयते घपादित हवं भण्णइ। घी आदि की आहति हव्य है।
(दजिचू. पृ २२५) हायणी-हायनी (जीवन की एक अवस्था)। हायत्यस्यां बाहुबलं चक्षु वा हायणी।
जिस अवस्था में बाहुबल तथा आंखें कमजोर हो जाती हैं, वह हायनी अवस्था है। (दचू.प. २) हिंसा-हिंसा। पमत्तजोगस्स पाणववरोवणं हिंसा। प्रमादवश प्राणों का व्यपरोपण करना हिंसा है।
(दशअचू. पृ. १२) हिम-हिम, बर्फ। अतिसीतावत्यभितमुदगमेव हिम।
अत्यन्त सर्दी में जो जल जम जाता है, वह हिम है। (दशअचू. पृ. ८८) • हिमं तु शिशिरसमये शीतपुद्गलसम्पर्काज्जलमेव फठिनीभूतम्।
शिशिरकाल में शीत पुद्गलों के सम्पर्क से जमा हुआ जल हिम कहलाता है। (आटी.पू. २७) होणपेषण-आज्ञा की अवहेलना करने वाला। होणपेसणं णाम जो य पेसण आयरिएहि दिन्नं द्र
देसकालादीहिं हीर्ण करेति त्ति होणपेसणे। जो आचार्य की आज्ञा को देश, काल आदि के बहाने से हीन कर देता है, वह हीनप्रेषण
(दजि . पृ. ३१७) हेठ-हेतु। हिनोति-गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टाननिति हेतुः।
जो जिज्ञासित धर्म के विशिष्ट अर्थों का ज्ञापक होता है, वह हेतु है ।(दशहाटी ए. ३३)