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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
सरीरबठस-शरीरबकुश। सरीराभिषक्तचित्तो विभूषितार्थो तत्प्रतिकारसेवी शरीरबकुशः।
जो शरीर के प्रति आसक्त, विभूषा का उपर्थी (निरन्तर शरीर का परिकर्म करने वाला) तथा शरीर के प्रतिकूल तथ्य का प्रतिकार करने वाला होता है, वह शरीरचकुश कहलाता है।
___ (उचू पृ. १४५) ससणिक-जन से स्निाध। ससणिद्धं जं न गलति तितयं तं ससणि भण्णइ।
गीली वस्तु, जिससे जला-बिन्दु नहीं गिरते, उसे सस्निग्ध कहते हैं ।( दशजवू पृ. १५५) साहु-साधु । जेण कारणेण तस-थावराणं जीवाणं अप्पणो य हियत्थं भवइ तहा जयंति अतो य ते
साहुणो भण्णति। जो त्रस-स्थावर जोवों के तथा स्वयं के हित के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वे साधु हैं।
(दशजिवू पृ. ७०) सिक्खग-नवदीक्षित। सिक्खगो णाम जो अहुणा पव्यइओ। तत्काल प्रजित मुनि शैक्ष कहलाता है।
(दशहाटी प. ३१) सिक्खा -शिक्षा। शिक्षा नाम शास्त्रकलासु कौशलम्।
शास्त्रों में तथा कलाओं में कुशलता प्राप्त करना शिक्षा है। (उचू पृ. १६५) सिणात-स्नातक। मोहणिज्जाझ्यातियचठकम्मावगतो सिणाती भण्णति। जो महिनीय आदि चार पती कर्मों का विनाश कर देता है, वह स्नातक निग्रन्थ है।
(उचू पृ. १४५) सिद्ध-सिद्ध। रागादिवासनामुक्त, चित्तमेव निरामयम्।
सदा नियतदेशस्थं, सिद्ध इत्यभिधीयते॥ राग आदि की वासना से मुक्त, निर्मल चित्त वाले तथा सदा नियत स्थान में स्थित सिद्ध कहलाते हैं।
(दशहाटी प. १) सिला-शिला। सवित्यारो पाहाणविसेसो सिला। विस्तृत पाषाणखंड शिला कहलाती है।
(दचू प. ११) • सिला नाम विस्थिण्णो जो पाहाणो सा सिला। मूल से विच्छिपण पाषाण शिला कहलाती है।
(दशजिचू पृ. १५४) सीओदग-सचित्त जल । उदगं असत्यहर्य सजीवं सीतोदर्ग भण्णइ। जो जल शस्त्र प्रतिहत नहीं होता, वह शीतोदक (अप्रासुक जल) कहलाता है।
(दशजिचू पृ. ३३९) सीयपरीसह-शीतपरीषह । जे मंदपरीणामा परीसहा ते भवे सीया। मंद परिणाम बाले परीषह शीत परीषह कहलाते हैं।
(आनि २०४) सीलगुण-शीलगुण। सीलगुणो णाम अक्कुस्समाणो वि ण खुब्मति, अहषा सदादिएसु भइयपावएसु
ण रज्वति दुस्सति था। आक्रोश किए जाने पर भी क्षुब्ध नहीं होना, प्रशस्त इन्द्रिय-विषयों में अनुरक्त तथा अप्रशस्त इंद्रिय-विषयों में द्वेष नहीं करना शीलगुण है।
(आचू, पृ. ४५)