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नियुक्तिपंचक
समण-समण। समेति व वाणी समणो।
जो अपने कथन के अनुसार चलता है, वह समण है। (आचू. पृ. २७१) • जह मम न पियं दुखं, जाणिय एमेव सब्य जीवाणं। • न हणति न हणावेति, य सममणई तेण सो समणो॥ जैसे मुझे दुःख अप्रिय है वैसे ही सब जीवों को है-ऐसा जानकर जो व्यक्ति न हिंसा करता है, न करवाता है तथा जो समान व्यवहार करता है, वह समण है। (दशनि.१२९) • मित्ता-रिसु समो मणो जस्स सो भवति समणो। जिसका शत्रु और मित्र के प्रति समान मन होता है, वह समन है। (सूचू. १ पृ. २४६) . तिथ य सि कोति वेसो, पिओ व सव्येसचेव जीवेस। एएण होति समणो.....|
जिसके लिए कोई प्रिय या अप्रिय नहीं होता, वह समण है। (दशअचू. पृ. ३६) समर--समर, युद्ध। समरं नाम जत्थ हेडा लोहयारा कम्मं करेंति आहवा सहारिभिः समरः।
जहां लोहकार कार्य करते हैं, वह समर है अथवा जहां शत्रुओं के साथ सामना होता है, वह समर (युद्ध) है।
(उचू.पृ. ३७) संखुडकम्मा-संयमी। मिथ्यादर्शनाऽविरति-प्रमाद-कषाय-योगा यस्य संवृता भवन्ति स संवृतकर्मा।
जिसके मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग संवृत होते हैं, वह संवृतकमां-संयमी कहलाता है।
(सूचू.१ पृ. ६९) समाहि-समाधि । समाधिर्नाम राग-द्वेषपरित्यागः। राग-द्वेष का परित्याग करना समाधि है।
(सूचू.१ पृ. ६७।) समाहितप्पा –समाहित आत्मा। नाण-दसण-चरित्तेसु सह आहितप्पा समाहितप्पा। ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अच्छी तरह स्थित व्यक्ति समाहित कहलाता है।
(दशअचू. पृ. २४१) समाहियच्च-समाहितार्च । जस्स भावो समाहिती स भवति समाहियच्चो। जिसके भाव समाधियुक्त होते हैं, वह समाधितार्च है।
(आचू. पृ. २८१) समिइ-समिति। सम्मं पवत्तर्ण समिती। सम्यक् प्रवर्तन करना समिति है।
(दशअचू.पृ. ५३) समुत्थिय-समुत्थित । मोक्षाय सम्यगुत्थिताः समुत्थिताः।
मोक्षप्राप्ति के लिए सम्यक् पुरुषार्थ करने वाले समुत्थित कहलाते हैं । (सूचू.१ पृ. ६७) सयग्घी-शतघ्नी। शतं जन्तीति शतघ्यः। एक साथ सौ को मारने वाला शस्त्र शतघ्नी है।
(उचू.पृ. १८२) सरण-शरण। जेण आवति तरतिजं अस्सिता णिभयं वसति तं सरणं । जहां आपदाओं से रक्षा होती है तथा जहां निर्भयतापूर्वक रहा जा सकता है, वह शरण है।
(आचू.पृ. ५३)