Book Title: Niryukti Panchak
Author(s): Bhadrabahuswami, Mahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 758
________________ ६६० विक्खेवणी कहा - विक्षेपणो कथा । जा ससमयवज्चा खलु होइ कहा लोग-बेय-संजुत्ता। परसमयाणं च कहा, एसा विक्खेषणी नाम ॥ जो कथा ( धर्मापदेश) स्वसिद्धान्त से शून्य तथा लौकिक कथाओं से संयुक्त है वह परसिद्धान्त का कथन करने वाली त्रिक्षेपणी कथा है। (दर्शनि १७० ) a विविहं विण्णाण विसयादीहि खवति विक्खेवणी । जो कथा विविध उपायों से श्रोता को इन्द्रिय-त्रिषयों से दूर ले जाती है, वह विक्षेपणी कथा है । (दशअचू. पू. ५५) विगमगेहि - विगतगृद्धि | बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु विगता यस्य गेधी स भवति विगतयेधी । जो बाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओं के प्रति गृद्ध नहीं होता, वह विगतगृद्धि है। विज्जल - विजल । विगयमात्रं जती जलं तं विज्जलं । जिस पंक में वितस्तिमात्र जल हो, वह विज्जल हैं। विष्णाण - विज्ञान | विविहेहिं महावोहादीहिं जेण उवलभति तं विष्णाणं । जी विविध ऊहा, अपोह आदि से जाना जाता है, वह विज्ञान है । वितह - वितथ। जं वत्युं न तेण सभाषेण अस्थि तं वितहं भष्णइ । अतद्रूप वस्तु वितथ कहलाती है । विभूसा - विभूषा । विभूसा नाम ण्हाण-हत्य-पाद-मुह वत्थादिधोषणं । स्नान करना, हाथ, पैर, मुंह, वस्त्र आदि धोना विभूषा है। विपक्खण - विचक्षण । वियक्खणो पराभिप्पायजाणतो । दूसरों के अभिप्राय का ज्ञाता विचक्षण कहलाता है। वियत - व्यक्त । व्यक्तो बालभावान्निष्क्रान्तः परिणतबुद्धिः । नियुक्तिपंचक ( सूचू. १ पृ. १४९ ) a ( दशअचू. पू. १००) (दश अचू. पृ. ६७ ) है । विरमण - विरमण विरति । विरमणं नाम सम्यग्ज्ञान श्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनम् । सम्यग् ज्ञान और श्रद्धा पूर्वक सर्वथा निवर्तन करना विरमण हैं। विरय - विरत । पाणवधादीहिं आसवदारेहिं न वट्ट ति विरतो । विसय - विषय । विषीदन्ति-अवबध्यन्ते एतेषु प्राणिन इति विषयाः । जहां प्राणी बंध जाते हैं, वे इंद्रिय विषय हैं। ( दशजिचू. पृ. २४६ ) ( आचू. पृ. २८) ( दशअचू. पू. १०६ ) बालभाव को पार कर चुका है, जिसकी बुद्धि परिपक्व ही चुकी है, वह व्यक्त कहलाता ( सूटी. पृ. ८) जो प्राणवध आदि आस्रव द्वारों में प्रवृत्त नहीं होता, वह विरत कहलाता है। (दशहाटी. प. १४४ ) विरओ णामऽणेगपगारेण बारसविहे तवे रओ । बारह प्रकार के तप में अनेक प्रकार से निरत भिक्षु विरत कहलाता हैं । ( दशजिचू. पू. ७४) ( दशजि. पू. १५४) (दशहाटी. प. ८६ )

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