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६.१२
मियुक्तिपंचक
बंध-बन्ध। कम्मयदव्वेहि सम, संजोगो होति जो उ जीवस्स। सो बंधो नायव्यो...। जीव का कर्म-पुद्गलों के साथ सम्बन्ध हाना बंध है।
(आनि. २७९) • बंधौ णाम यदात्मा कर्मयोग्यपुद्गलानां स्वदेशः परिणमयति परस्परं क्षीरोदकवत् तदा बंधी भवति।
कर्मयोग्य पुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ क्षीरनीरवत् लोलीभूत हो जाना बंध है ।(उचू. पृ २१) भ-ब्रह्म। बृहति बृहितो वा अनेनेति ब्रह्मः।
जो व्यापक है अथवा जिससे व्यापकता होती है, वह ब्रह्म है। (उचू. पृ. २०७) बंभण-ब्राह्मण। अट्ठारसविधो बंभ धारयतीति भणणे।।
अठारह प्रकार के ब्रह्म को धारण करने वाला ब्राह्मण है। (दशअचू. पृ. २३४) बहुमाण-बहुमान। भाषओ नाणमंतेसु णेहपनिबंधो बहुमाणो।
ज्ञानियों के प्रति अंत:करण से स्नेहप्रतिबद्धता बहुमान है। (दशअचू. पृ. ५२) बहुस्सुत-बहुश्रुत । परिसमतपणिपिडगझयणस्सवणेण विसेसेण य बहुस्सुतो।
जो गणिपिटक–द्वादशांगी के अध्ययन और श्रवण-विशेष को परिसंपन्न कर लेता है, वह बहुश्रुत कहलाता है।
(दशअचू पृ. २५६) बोक्कस-क्किस। निसाएणं अंबट्ठीर जाती सो बोक्कसो भवति।
निषाद पुरुष से अंबष्ठी स्वी में उत्पन्न संतान बोक्कस कहलाती है। (उचू. पृ. ९६) • निसाएण सुदीए जातो सो वि बोक्कसो।
निषाद पुरुष से शूद्र स्त्री में उत्पन्न संतान भी बोक्कस कहलाती है। (आचू. पृ. ६) भगव-भगवान् । अत्थ-जस-धम्म-लच्छी-लव-सत्त-विभवाण छोई एतेसिं भग इदि णाम,
अस्स संति सो भण्णति भगवं। भग के छह प्रकार हैं- अर्थ, यश, धर्म, लक्ष्मी, रूप और सत्त्व। जिसको 'भग'-वैभव प्राप्त है, वह भगवान् है।
(उचू. पृ. ५१) भक्ति-भक्ति। पत्ती पुण अब्भुवाणाति सेवा। अभ्युत्थान आदि से सेवा करना भक्ति है।
(दशअचू. पृ. ५२) भवंत-भवान्त। भवमवि चतुष्पगारं खमाणो भवंतो भवति । नरक आदि चारों प्रकार के भव-संसार का क्षय करने वाला भवान्त कहलाता है।
(दशअचू. पृ. २३३) भवबीवित-भवजीवित । जस्स ठदएण गरगादिभषग्गहणेसु जीवति जस्स य उदएण नवातो भवं गच्छति
एतं भवजीवित। जिस कर्म के उदय से प्राणी नरक आदि भवों में जीता है, अथवा जिस कर्म के उदय से
एक भव से दूसरे भव में जाता है, वह भवजीवित कर्म है। (दशअचू. पृ. ६६) भवाव-भवायु । जेण य धरति भवगतो, जीवो जेण उ भवाउ संकमई। जाणाहि तं भवाट.... जिसके आधार पर जीव भव धारण करता है अथवा भवायुष्य संक्रमित होता है, वह भवायु
(दशअचू. पृ. ६६)