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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
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मणि-मणि। मयते मन्यते वा तमलङ्कारमिति मणिः।।
जो उस-उस अलंकार को श्रेष्ठ बना देता है, वह मणि है। (उचू. पृ. १५१) मणोरम-मनोरम । मणोरमे मासि अत्र मनस्विना रमन्त इति मणोरमे भवति।
जो मनस्वी लोगों के मन में रमण करता है, वह मनोरम है। (सूचू.१ पृ. १४६) मच्छर-मात्सर्य। मत्सरो नाम अभिमानपुरस्सरो रोषः। जो अभिमानयुक्त रोष होता है, वह भात्सर्य है।
(सूचू.१ पृ. ७४) महवया-मार्दव । महवता जाति-कुलादीहिं परपरिभवाभावो।
जाति, कुल आदि के आधार पर दूसरों का परिभव न करना मार्दव है। (दशअचू-पृ. ११) मयगंगा-मृतगंगा। मतगंगा हेटाभूमीए गंगा अण्णमण्णेहिं मग्गेहि जेण पुष्य योदूर्ण पच्छा
ण वहति सा मतगंगा भण्णति। गंगा प्रतिवर्ष नए-नए मार्ग से समुद्र में जाती है। जो मार्ग चिरत्यक्त हो, बहते - बहते गंगा ने जो मार्ग छोड़ दिया हो, उसे मृतगंगा कहा जाता है।
(उचू. पृ. २१५) महिया-महिका, कुहरा। जो सिसिरे तुसारो पडह, सा महिया भण्णा।
शिशिर काल में जो तुषार गिरती हैं, वह महिका कहलाती है। (दशजिचू. पृ. १५५) • गर्भमासादिषु सायं प्रातर्वा धूमिकापातो महिकेत्युच्यते। गर्भमास आदि में सायं और प्रातः जो धूअर आती है, वह महिका कहलाती है।
(आटी. पृ. २७) • पातो सिसिरे दिसामंधकारकारिणी महिता। शिशिर में जो अंधकारकारक तुषार गिरता है, उसे महिका या कुहरा कहते हैं।
(दशअचू. पृ. ८८) महेसि-महान् की एषणा करने वाला। महानिति मोक्षो तं एसन्ति महेसियो।
जो महान् अर्थात मोक्ष की एषणा करता है, वह महेषी-महर्षि हैं। (दशअचू. पृ. ५९) मागह-मागध। वइस्सेण खत्तियाणीए जाओ मागहो त्ति भण्णा।
वैश्य पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न संतान मागध कहलाती है। (आचू. पृ. ५) माण-सम्मान । भाणो अभुट्ठाणादीहिं गव्वकरण। अभ्युत्थान आदि से गर्व करना मान है।
(दशअचू.पृ. १३३) • जाति-कुल-रूप बलादिसमुत्थो गर्यो मानः। जाति, कुल, रूप, बल आदि से उत्पन्न गर्व मान है।
(आटी. पृ. ११४) माभग-ममकार करने वाला। मामको णाम ममीकार करोति देशे ग्रामे कुले वा एगपुरिसे वा। जो देश, ग्राम, कुल अथवा किसी पुरुष विशेष में ममकार करते हैं, वे मामक-मोही हैं।
(सूचू. १ पृ. ६७) माया-माया। परवञ्चनाध्यवसायो माया। दूसरे को ठगने की भावना माया है।
(आटी. पृ. ११४)