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परिशिष्ट ६ : कथाएं
कहा--'मैं भली भांति तो नहीं जानता लेकिन अंगमर्दन के ज्ञाता लोगों के पास रहा हूँ।' दासी चंपक का तेल लेकर आई। मूलदेव ने अभ्यंगन प्रारम्भ कर दिया। वह मूलदेव के दशवर्ती हो गयी।
देवदत्ता ने सोचा-'अहो इसके पास विज्ञान का अद्भुत अतिशय है । इसकी हथेली का स्पर्श भी अपूर्व है । यह निश्चित ही प्रच्छन्न रूप से सिद्धपुरुप होना चाहिए। प्रकृति से इस रूप वाले का इतना प्रकर्ष नहीं हो सकता अरा : इसके मूल रूप को प्रकट करवाऊंगी।' देवदत्ता भूलदेव के चरणों में गिर पड़ी और बोली-'महानुभाव ! आपके असाधारण गुणों से ही मैंने आपको पहचान लिया है कि आप उत्तमपुरुप हैं. वात्सल्ययुक्त हैं तथा उदार हैं अत: आप अपना मूल रूप प्रकट करें। आपके मूल रूप का दर्शन करने हेतु मेरा हृदय अत्यंत उत्कंठित है।' बहुत अधिक आग्रह करने पर मुस्कराकर मूलदेव ने वेश-परावर्तिनी गुटिका निकाली। गुटिका के प्रयोग से वह मूल रूप में आ गया। सूर्य के समान दीप्त तेज, कामदेव के समान मोहित रूप तथा नव यौवन और लावण्य से युक्त उस मूलदेव को सबने देखा। हर्ष के कारण रोमांचित होकर देवदत्ता मूलदेव के चरणों में पुन: गिर पड़ी। देवदत्ता चोली-'आपने अपने हाथों से अभ्यंगन किया यह मुझ पर अत्यंत कृपा की है। स्नान करने के बाद दोनों ने अच्छी तरह भोजन किया, देवाय पहना और वार्तालाप करने एक स्थान पर बैट गए। देवदत्ता ने कहा-'महाभाग ! तुमको छोड़कर कोई भी दूसरा पुरुष मेरे भन को अतरंजित नहीं कर सका। नोतिविदों ने यह सच ही कहा है
नयणेहि को न दीसह ?, केण समाणं न होंति उल्ल्यवा।
हिययाणंदं जं पुण, जणेइ तं माणुसं विरलं ।। 'आंखों से कौन दिखाई नहीं देता? किसके साथ आत्लाप-संलाप नहीं होता? किन्तु हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला पुरुष विरल ही होता है। मैं आपसे अनुरोध करती हूं कि आप प्रतिदिन मेरे घर आया करें।' मूलदेव ने कहा.-'गुणानुरागिणी देवी! अन्य देश से आए मुझ जैसे निर्धन से प्रतिबद्धता रखना आपके लिए शोभास्पद नहीं है। ऐसा स्नेह स्थिर नहीं रहता है क्योंकि सभी व्यक्ति प्रयोजनवश ही स्नेह करते हैं।' देवदता बोली- 'सत्पुरुषों के लिए स्वदेश और परदेश जैसा कुछ नहीं होता अत: आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें।' देवदत्ता का आग्रह देखकर मूलदेव ने उसको प्रार्थना स्वीकार कर ली। उन दोनों का आपस में स्नेहयुक्त संबंध हो गया।
एक बार देवदत्ता ने राजा के समक्ष अपना नृत्य प्रस्तुत किया। उसमें मूलदेव ने वाद्य बजाए । राजा उससे बहुत संतुष्ट हुआ और एक वरदान दिया । देवदत्ता ने राजा से कहा-'आप मेरा यह वरदान धरोहर के रूप में रखें। समय आने पर मांगी।'
मूलदेव अत्यन्त धूत व्यसनी धा। वह पहनने के कपड़े भी दांव पर लगाने से नहीं चूकता था। देवदत्ता ने अनुनयपूर्वक मधुर स्वर में मूलदेव को कहा-'प्रियतम ! चन्द्रमा में कलंक की भांति तुम इस व्यसन को क्यों धारण किए हुए हो? तुम सब गुणों से अलंकृत हो पर द्यूत रूप कलंक से कलंकित हो । द्यूत सभी दोषों का घर हैं अत: मेरे आग्रह से तुम इस व्यसन को पूर्ण रूप से छोड़ दो।' द्यूत में अत्यधिक रस होने के कारण मूलदेव उसे छोड़ नहीं सका।
देवदत्ता के प्रति वहीं का निवासी अचल नामक सार्थवाह-पुत्र भी अत्यधिक आग्यतः !!