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निर्युक्तिपंचक
एक बार घूमते हुए राजा ने पुष्पित आम्रवृक्ष देखा। राजा उसकी एक मंजरी तोड़कर आगे निकल गया। राजा के जाने बाद पीछे चलने वाली सेना ने उस वृक्ष की मंजरी, पत्र, प्रवाल, पुष्प फूल, फल आदि सभी तोड़ लिए। आम्र का वृक्ष केवल ठूंठ मात्र रह गया। कुछ समय पश्चात् राजा उसी मार्ग से लौटा। राजा ने पूछा- 'वह आम्रवृक्ष कहां है?' मंत्री ने अंगुलि के इशारे से ठूंठ की ओर इशारा किया। राजा पूछा-' इसकी ऐसी अवस्था कैसे हुई ?' मंत्री ने कहा- 'राजन् ! आपने एक मंजरी तोड़ी। उसके बाद पूरी सेना ने एक-एक चीज तोड़कर इसकी ऐसी अवस्था कर दी।' नग्गति राजा ने सोचा- 'निश्चित ही जहां ऋद्धि हैं, वहां शोभा है परन्तु सारी ऋद्धियां स्वभावतः चंचल हैं' ऐसा सोचते-सोचते वह संबुद्ध हो गया।
चारों प्रत्येकबुद्ध क्षितिंप्रतिष्ठित नगर के चार द्वार वाले देवकुल में पहुंचे। पूर्व दिशा के द्वार से करकंडु ने, दक्षिण दिशा के द्वार से द्विर्मुख ने पश्चिम दिशा के द्वार से नमि ने तथा उत्तर दिशा के द्वार से गांधार अधिपति नग्गति ने प्रवेश किया। साधु के सामने दूसरी ओर मुंह करके कैसे रहूं इसलिए व्यंतर देव ने चारों और अपना मुंह कर लिया।
राजर्षि करकंडु के बालपन से ही खुजली का रोग था। उसने खाज करने वाले उपकरण द्वारा धीरे से अपने कान को खुजलाया। उस उपकरण को उसने एक स्थान पर छिपा दिया। छिपाते हुए उसे द्विर्मुख ने देख लिया। मुनि द्विर्मुख बोला- 'जब तुमने राज्य, राष्ट्र, नगर और अंतःपुर भी छोड़ दिया है तो फिर मुर्ति बनकर संजय क्यों को करकडु में इस बात का कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। उस समय नमि राजर्षि बोले- 'जब तुम्हारे पिता का राज्य था। तब दूसरे के दोष देखने वाले अनेक कर्मचारी नियुक्त थे। तुमने दीक्षित होकर उस कार्य को छोड़ दिया फिर आज दूसरों के दोष देखने वाले कैसे बन रहे हो?' तब गांधारराज नग्गति बोले- 'जब तुमने सब कुछ छोड़कर आत्मकल्याण के लिए मोक्षमार्ग का रास्ता अपनाया है तो फिर दूसरों की निंदा, गर्हा क्यों करते हो?" यह सुनकर मुनि करकंडु बोले- 'मोक्ष मार्ग में संलग्न ब्रह्मचारी और मुनि यदि किसी के अहित का निवारण करते हैं तो उसे दोष दर्शन नहीं कहा जा सकता । कहा भी है
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रूसक वा परो भाषा, विसं वा परियत्तउ । भासियष्वा हिया भासा, सपक्खगुणकारिया ॥
- दूसरा चाहे रोष करे अथवा विष का भक्षण करे, साधक को सदा गुणकारी और हितकारी भाषा बोलनी चाहिए। करकंडु द्वारा की गई इस अनुशास्ति को सबने स्वीकार कर लिया। कालान्तर में वे चारों प्रत्येकबुद्ध मोक्ष को प्राप्त हो गए।
५३. गौतम की अधीरता
पृष्ठचंपा नामक नगरी में शाल नामक राजा राज्य करता था। युवराज का नाम महाशाल था। उसकी बहिन का नाम यशोमती और पति का नाम पिठर था। उसके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम गागलि रखा गया। एक बार भगवान् महावीर राजगृह से बिहार कर पृष्ठचंपा पधारे। वहां १. उनि २५८-७२, उशांटी.प. २८७-३०५, उसुटी. प. १४१-४५ ॥