Book Title: Niryukti Panchak
Author(s): Bhadrabahuswami, Mahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 712
________________ ६२४ निर्युक्तिपंचक खसीट करते हुए जीवन यापन करने लगे। आर्द्र कुमार ने उन्हें पहचान लिया। आर्द्रक मुनि ने पूछा कि 'तुम 'लोग चोर कैसे बन गए? उन्होंने राजभय की बात कहो। मुनि आर्द्रक ने उन्हें प्रतिबोध दिया। वे सभी संबुद्ध होकर मुनि बन गए। पांच सौ को प्रव्रजित कर उन्हें अपने साथ लेकर आर्द्रककुमार महावीर के दर्शनार्थ राजगृह आया। नगर के प्रवेश द्वार पर गोशालक, हस्तितापस आदि विभिन्न दर्शनों के आचार्य मिले। सबने मुनि आर्द्रक को अपने धर्म में दीक्षित करने का प्रयत्न किया। वाद-विवाद में उन सबको पराजित कर मुनि आर्द्रक आगे बढ़ा। इतने में एक विशालकाय हाथी अपने बंधनों को तोड़कर मुनि आर्द्रक के चरणों में झुक गया। राजा को जब यह बात ज्ञात हुई वह आर्द्रककुमार के पास आया और चरण- वंदना कर बोला- 'भंते! आपके दर्शनमात्र से यह उन्मत्त हाथी अपने बंधनों से मुक्त कैसे हो गया? आपका अचिन्त्य प्रभाव है। मुनि आर्द्रक बोले- 'राजन् ! मनुष्यों द्वारा निर्मित सांकलों द्वारा बंधे हुए हाथी का बंधनमुक्त होना आश्चर्य की बात नहीं है, यह दुष्कर भी नहीं हैं। कच्चे सूत की डोरी से बंधे हुए मेरा बंधन मुक्त होना दुष्कर है क्योंकि स्नेह-तंतु की तोड़ना अत्यन्त दुष्कर होता है।' राजा मुनि की स्तवना करता हुआ महावीर के समवसरण में चला गया। ६. आज्ञा का महत्व नालन्दा के समीप मनोरथ नामक उद्यान था। एक बार गणधर गौतम अनेक शिष्यों के साथ वहां समवसृत थे। तीर्थंकर पार्श्व की परम्परा में दीक्षित श्रमण उदक जिज्ञासा के समाधान हेतु गौतम के पास आया। वह पेढाल का पुत्र और मेदार्य गोत्र वाला था। उसने गौतम से श्रावक के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। गौतम ने उनका समाधान किया। एक प्रश्न के समाधान में एक कथानक सुनाते हुए गौतम ने कहा | 'रत्नपुर नगर में रत्नशंखर नामक राजा था। एक दिन प्रसन्न होकर राजा ने अग्रमहिषी रत्नमाला आदि रानियों को कौमुदीप्रचार की आज्ञा दे दी। नागरिक लोगों ने भी अपनी स्त्रियों को कौमुदी महोत्सव में क्रीड़ा करने की अनुमति दी। राजा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि कौमुदी महोत्सव के प्रारम्भ हो जाने पर सूर्यास्त के बाद जो कोई व्यक्ति नगर में मिलेगा उसको बिना कुछ पूछताछ किए दंडित किया जाएगा। एक व्यापारी के पुत्र उस दिन क्रय विक्रय और व्यापार में इतने व्यस्त हो गए कि सूयांस्त हो गया। सूर्यास्त होते ही नगरद्वार बंद कर दिए गए। वे छहों ऋणिक्पुत्र समय के अतिक्रान्त हो जाने पर बाहर नहीं जा सके। वे भयभीत होकर नगर के मध्य में ही कहीं छुप गए। कौमुदी महोत्सव पूर्ण होने पर राजा ने आरक्षकों को बुलाकर आदेश दिया कि तुम अच्छी तरह देखो कि कौमुदी महोत्सव में नगर में कौन पुरुष उपस्थित था। आरक्षकों ने पूर्णरूपेण निरीक्षण कर छह वणिक् पुत्रों की बात राजा से कही। आज्ञाभंग के अपराध से राजा ने कुपित होकर छहों को मृत्युदण्ड दे दिया । पुत्र-शोक से विह्वल पिता ने राजा से कहा- ' आप हमारे कुल को नष्ट न करें। आप मेरी सारी सम्पति ले लें पर मेरे छहों पुत्रों को मुक्त कर दें। आप अनुग्रह करें।' राजा ने प्रार्थना स्वीकार नहीं की। तब वणिकू हताश होकर पांच, चार, तीन, दो और एक पुत्र की मुक्ति की प्रार्थना १. सूनि १८८ - २०१, सूचू.प. ४१४-१७, सूटी. पृ. २५८.२५९ ।

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