Book Title: Niryukti Panchak
Author(s): Bhadrabahuswami, Mahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 722
________________ ६२४ नियुक्तिपंचक घर पहुंचा। भट्टा अपने वायदे को अवहेलना सह न सकी अतः उसने द्वार नहीं खोले। मंत्री बाहर ही खड़ा रहा। जब अति विलम्ब हो गया तब मंत्री ने भट्टा से कहा--'मैं तो जाता हूं, अब तुम ही इस घर की स्वामिनी बनकर रहना।' यह सुनते ही भट्टा ने द्वार खोला और अभिमानवश अकेली ही जंगल में चली गयो । वह अनेक आभूषणों से विभूषित थी अत: रास्ते में चोरों ने उसे पकड़ लिया। चोरों ने उसके आभूषण उतार लिए और अपने सेनापति के समक्ष उसे उपस्थित किया। चोरों का मुखिया उसके रूप पर मुग्ध हो गया और उसे विवाह-सूत्र में बंधने के लिए कहा लेकिन उसने वह प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया। अनेक प्रयत्नों के बाद भी वह उसे प्राप्त नहीं कर सका। अंत में सेनापति ने जलौक वैध्य के हार्थों उसे बेच डाला। उसने भी उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा लेकिन वह शीलवती नारी थी अत: अपने धर्म से नहीं डिगी। अंत में उस जलौक वैद्य ने रोष में कहा कि जाओ मेरे लिए जलौका लेकर आओ। वह शरीर पर मक्खन चुपड़कर जल में अवगाहन करती और जौक पकड़ती। वह कार्य उसके लिए उपयुक्त नहीं था। वह वैसा करना भी नहीं चाहती थी परन्तु शीलरक्षा के लिए उसे वैसा करना पड़ रहा था। इस कार्य से उसका रूप और लावण्य नष्ट हो गया। एक बार दूत कार्य में नियुक्त उसका भाई वहाँ अग्या। वहां उसने अपनी बहिन को पहचान लिया और उससे सारा वृत्तान्त जाना। भाई जलौक वैद्य से अपनी बहिन को मुक्त कराकर घर ले आया। वमन-विरेचन आदि प्रयत्नों से यह पूर्ण स्वस्थ हो गई। अमात्य ने उस पर विश्वास कर लिया। अपने घर लाकर उसे पुन: गृहस्वामिनी बना दिया। क्रोधपूर्वक अभिमान के दुष्परिणाम को देखकर उसने संकल्प किया कि मैं अब क्रोध और अभिमान नहीं करूंगी। अब उसका अभिमान मर चुका था। भट्टा के घर लक्षपाक तैल का निर्माण हुआ। एक मुनि ने अपनी व्रण-चिकित्सा के लिए भट्टा से वह तैल मांगा। भट्टा ने अपनी दासी को तैल का घट लाने को कहा। दासी जब घट उठाने लगी तो वह उसके हाथ से गिरकर फूट गया। इसी प्रकार दूसरा और तीसरा घट भी हाथ से गिरा और फूट गया। बहुमूल्य वैल-बटों के नष्ट हो जाने पर भी भट्टा को क्रोध नहीं आया। चौथी बार उसने स्वयं उठकर लक्षपाक तैल साधु को दिया। तीन घड़ों के फूट जाने से भी उसके मन पर कोई असर नहीं हुआ। ६. आराधक-विराधक (पांडुरा आर्या) एक शिथिलाचारिणी साध्वी थी। उसका नाम 'पांडुरा' था। उसको शरीर और उपकरणों के प्रति आसक्ति थी अत: वह शरीरबकुश और उपकरणबकुश थी। वह प्रतिदिन स्वच्छ और सफेद वस्त्र धारण करती थी इसीलिए लोगों ने उसका नाम 'पादुरा आर्या' रख दिया। पांडुरा को अनेक विद्या, मंत्र, वशीकरण और उच्चाटन आदि की जानकारी थी तथा उसको अनेक विद्याएं सिद्ध थीं। वह उन विद्याओं का प्रयोग भी करती थी। इन विद्याओं का चमत्कार देखने अनेक व्यक्ति श्रद्धा से उसके पास आते और मस्तक झकाकर हाथ जोडे खडे रहते। आधी उम्र बीतने पर उसे वैराग्य आया और उसने अपने आचार्य को निवेदन किया कि आप मुझे अकल्प्य वृत्तियों की आलोचना करवाएं। आलोचना के बाद उसने दीर्घकाल तक दीक्षापालन में अपनी असमर्थता व्यक्त की। आचार्य ने मंत्र, विद्या आदि का प्रयोग करने का प्रत्याख्यान १. दनि १०६-१०९, दनू प. ६२, निभा ३१९४-९७, चू.पू. १५०, १५१ ।

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