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परिभाषाएं
अठगव - अयोगव । सुद्देण वइस्सीए जाओ अउगवुत्ति भण्णइ ।
शूद्र पुरुष से वैश्य स्त्री में उत्पन्न संतान अयोगव कहलाती है । अंबट्ट - अम्बष्ठ । बंधणेणं वइस्तीए जाओ अंबट्टो ति बुच्चइ ।
ब्राह्मण पुरुष से वैश्य स्त्री में उत्पन्न संतान अम्बष्ठ कहलाती है । अभ्स अकर्मा । कर्मणस्ते अवगया जस्स सो अकम्मंसो । जिसके सभी कर्म अपगत हो गए हों, वह अकर्माश है।
(उच्. ए. १४५ )
अकहा- अकथा | मिच्छतं वेदंतो जं अण्णाणी कहं परिकहेति... सा अकहा देसिया समए । मिध्यात्व मोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ अज्ञानी जो कथा करता है, वह विकथा कहलाती है F ( दर्शान. १८२ )
अकिंचन - अकिञ्चन । नत्थि बस्स किंचणं सोऽकिंचणी ।
अक्खेवणी - आक्षेपणी । जाए सोता रंजिघ्नति, सा अक्खेवणी ।
परिशिष्ट ७
जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह अकिंचन है।
अकिंचणया - अकिंचनता अकिंचणया नाम सदेहे निस्संगता निम्ममत्तणं ति वुत्तं भवति । अपने शरीर के प्रति निःसंगता और निर्ममत्व अकिंचनता कहलाती है।
( आचू. पृ. ५ )
अगंधण - अगंधन अगंधणा णाम मरणं ववसंति, ण य वंतयं आदियंति । जो मरना पसन्द कर लेते हैं पर वान्त विष का पुनः पान नहीं करते, सर्प कहलाते हैं।
( आचू. पृ. ५)
अग्गबीय - अग्रबीज। जैसि कोटगादीणं अग्गाणि रूप्यंति ते अग्गबीया ।
(दशअचू. पृ. ११)
जिसको सुनकर श्रोता रंजित होते हैं, वह आक्षेपणी कथा है। ( दशअच्चू. पृ. ५५ ) • विज्जा-चरण- पुरिसकार समिति-गुत्तीओ जाए कहाए उवदिस्संति, सो कहाए अक्खेवणीए रसो ।
(दशजिचू. पू. १८)
जिस कथा में विद्या, चरण, पुरुषकार, समिति, गुप्तियां उपदिष्ट होती हैं, वह आक्षेपणी कथा का रस है । (दशअचू. पृ. ५६ )
वे अगंधन कुल के (दशजिचू. पृ. ८७)
जिसका अग्रभाग ही बीज है, जिसका अग्रभाग बोया जाता है, वह वनस्पति अग्रबीज कहलाती है, जैसे- कोरंटक आदि।
(दशअचू. पृ. ७५)
अग्गला - अगला । दुधारे तिरिच्छं खीलिकाकोडिये कट्ठे अग्गला । द्वार में तिरछे काष्ठ का अवष्टम्भन अर्गला कहलाती है। अचियत्त - अप्रिय । अचियत्ते त्ति अप्रीतिकरः दृश्यमानः सम्भाष्यमाणो वा सर्वस्याप्रीतिमेवोत्पादयति ।
( दशअचू. पू. १२७ )