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नियुक्तिपंचक
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भूखप्रधान होती है।' ब्राह्मण खाना खाकर अपनी पोटली बांधकर आगे चलने लगा। 'यह मध्याह्न में मुझे देगा' ऐसा सोचकर मूलदेव उसके पीछे-पीछे चलने लगा। दोपहर को उसने खाना खाया पर मूलदेव को नहीं दिया। यह कल मुझे कुछ खाने को देगा' इस आशा से मूलदेव आगे चला। आगे चलते हुए रात हो गयी। रास्ता पार कर वे एक वटवृक्ष के नीचे सो गए। प्रात:काल पुन: प्रस्थान किया। मध्याह्न में वे थक गए। टक्क ने भोजन किया लेकिन मूलदेव को नहीं दिया। तीसरे दिन मूलदेव ने सोचा कि अब तो अटवी लगभग पार हो गयी है, आज तो यह अवश्य मुझे कुछ खाने के लिए देगा। किन्तु ब्राह्मण ने कुछ नहीं दिया। उन लोगों ने अटवी पार कर ली। ब्राह्मण ने कहा-'दोनों के अलग-अलग मार्ग आ गए हैं, यह तुम्हारा मार्ग है और यह मेरा अत: तुम इस मार्ग से चले जाओ।' मूलदेव ने कहा-'ब्राह्मणदेव ! मैं आपके प्रभाव से यहां तक आ गया हूँ। मेरा नाम मूलदेव है। यदि आपका कोई प्रयोजन मेरे से सिद्ध हो तो वेन्नातट पर आ जाना।' मूलदेव ने पूछा-'आपका नाम क्या है?' ब्राह्मण ने कहा-'मेरा नाम सद्धड़ (श्राद्ध) है। लोगों के द्वारा मेरा नाम निघृणशर्मा किया गया है।
ब्राह्मण अपने गांव चला गया। मूलदेव भी वेन्नातट की तरफ चला गया। इसी बीच उसने एक बस्ती देखी। वह भिक्षा के लिए परे गांव में घमा। उसे उडद के अलावा कोई धान्य नहीं मिला। वह जलाशय की तरफ गया। वहां उसने तपस्या से कृशदेह, मासखमण का पारणा करने के लिए आने वाले एक महातपस्वी को देखा। तपस्वी को देखकर मूलदेव अत्यधिक हर्षित हुआ। मूलदेव ने सोचा-'अहो, मैं कृतार्थ हूँ, जो इस तपस्वी के आज दर्शन हुए हैं। अब अवश्य ही मेरे जीवन का कल्याण होगा। जैसे मरुस्थल में कल्पवृक्ष, दरिद्र के घर स्वर्ण-वृष्टि, मातंग के घर ऐरावत का होना सौभाग्य है, वैसे ही यहां मुनि के दर्शन मेरे लिए अत्यन्त कल्याणप्रद हैं। ये साधु ज्ञान, दर्शन से युक्त तथा स्वाध्याय, ध्यान और तप में निरत हैं अत: ये सुपात्र हैं। इनको दान देना अनंत सौभाग्य का कारण है। आज अवसर है अत: मैं यह उड़द का भोजन इन्हें दूंगा। इस गांव में कोई दाता नहीं है, इसीलिए ये महात्मा कुछ घरों में दर्शन देकर पुनः लौट जाते हैं। मैं दो तीन बार इस गांव में जाऊंगा तो मुझे उडद मिल जायेंगे। दसरा गांव पास ही है अत: ये सारे उडद मैं इनको ही दे दूंगा।' यह सोचकर मूलदेव ने मुनि को वंदना की और वे उड़द मुनि के समक्ष प्रस्तुत कर दिए। साधु ने द्रव्यशुद्धि और उसके परिणामों के प्रकर्ष को देखकर कहा--'वत्स ! थोड़े देना, सभी मत डाल देना, ऐसा कहकर पात्र नीचे रख दिया। मूलदेव ने प्रवर्धमान भावों से मुनि को उड़द दिए । इसी बीच आकाश के बीच से ऋषिभक्त देवता मूलदेव की भक्ति से प्रसन्न होकर बोला-'मूलदेव ! तुमने सुन्दर काम किया है। तुम एक गाथा के पश्चार्ध से जो चाहो वह मांग लो। मैं तुम्हारी सारी कामना पूर्ण करूंगा। मूलदेव ने कहा-'गणियं च देवदत्तं, दंतिसहस्सं च रज्ज च'- मुझे देवदत्ता गणिका, एक हजार हार्थी और राज्य चाहिए। देवता ने कहा-'वत्स ! तुम निश्चित रहो। इस तपस्वी मुनि के प्रभाव से शीघ्र ही तुम्हारी इच्छा पूरी होगी।' मूलदेव ने कहा-'बस इतना ही'। ऋषि को वंदना कर मूलदेव लौट गया और ऋषि भी उद्यान में चले गए। मूलदेव ने गांव से दूसरी भिक्षा प्राप्त कर ली। भोजन कर मूलदेव ने वेन्नातट की ओर प्रस्थान कर दिया। चलते-चलते वह वेन्नातट पहुंचा और रात्रि में पांथशाला में ही ठहर गया। अंतिम प्रहर में उसने एक स्वप्न देखा कि वह एक स्थान पर अनेक कार्पटिकों के साथ बैठा हुआ है। निर्मल चांदनी से युक्त, पूर्ण मंडल वाला चन्द्रमा पेट