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नियुक्तिपत्रक १४८. जलघर, स्थलचर तथा खेचर में जो श्रेष्ठ और कान्त होते हैं और जो लोगों द्वारा स्वभावत: अनुमत होते हैं, वे नियंञ्चों में पौंडरीक होते हैं।
१४९. अर्हत्, चक्रवर्ती, चारणश्चमण, विद्याधर, दशार और जो अन्य ऋद्धिमान व्यक्ति है, वे मनुष्यों में पौंडरीक होते हैं ।
१५०. भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देवों में जो प्रधान हैं, वे देवताओं में पौंडरीक होते हैं।
१५१. जैसे धातुओं में कांस्य प्रधान है वैसे ही वस्त्र, मणि, मौक्तिक, शिला तथा प्रवालों में ओ प्रधान है, वे अचित पौंडरीक होते हैं। ये सारे द्रव्य पौडरीक हैं 1
१५२. अचित्त तथा मिश्र द्रव्यों में जो प्रबर है, वे पौंडरीक होते हैं, शेष कंडरीक होते
१५३. लोक में जो क्षेत्र शुभ अनुभाव वाले होते हैं-जैसे देवकुरु, उत्तरकुरु आदि वे प्रवर क्षेत्रपौंडरीक होते हैं।
१५४. जो प्राणी भवस्थिति तथा कालस्थिति से प्रवर हैं, वे काल पौंडरीक होते हैं तथा शेष कंडरीक होते हैं।
१५५. गणना में पौंडरीक है--रज्जु की संख्या । संस्थान में पौंडरीक है-समचतुरस्र संस्थान । ये सारे पौंडरीक और शेष सारे बांडरीक है।
१५६. औवधिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिकइन भावों में जो प्रबर होते हैं, वे भाव पौडरीक है।
१५७. अथवा ज्ञान, दर्शन, पारित्र, विनय तथा अध्यात्म धर्मघ्यान आदि में जो मुनि प्रबर होते हैं, वे भाव पौंडरीक है।
१५८. प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्य पौंडरीक-वनस्पतिकाय का तथा भाव पौंडरीक-श्नमण का अधिकार है।
१५९. यहाँ पौंडरीक का दृष्टान्त दिया गया है ।' उसी पुंडरीक के उपचय अर्यात् सभी अवयवों की निष्पत्ति होने पर उसका सम्पाटन होता है। दान्तिक अधिकार यह है कि चक्रवर्ती आदि भन्यों की सिद्धि-प्राप्ति जिनेश्वरदेव के उपदेश से होती है। १. भवस्थिति से पौंडरीक है-अनुतरोपपातिक पपातिकदेव, औपशर्मिक भाव' में समस्त
देव क्योंकि वे उस पूरे भव में सुख का ही उपशान्तमोह वाले व्यक्ति, क्षायिक भाव में अनुभव करते हैं। उनमें शुभानुभाव ही होता है।
केवलज्ञानी, क्षायोपशामिक भाव में विपुल२. कायस्थिति से शुभकर्म वाले मनुष्य जो सात- मति, चौदह पूर्वधर, परम अवधिज्ञानी. पारि
आठ भव में निर्वाण प्राप्त करने वाले होते हैं, णाभिक भाष तथा सानिपातिक भाव में वे मनुष्यों में पौंडरीक है 1
सिद्ध आदि प्रवर होते हैं। ३, औदायिक भाव में तीर्थकर तथा अनुत्तरी- ४. देखें-परि. ६, कथा सं ४